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'भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं
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का रहस्य समझाया। वे निर्वाण के सर्वाधिक शक्ति-सम्पन्न प्रवक्ता थे । प्रवचन के बाद भगवान् ने गौतम को बुलाकर कहा - " -' गौतम! यहाँ से कुछ दूरी पर सोमशर्मा ब्राह्मण रहता है । वह तत्त्व का जिज्ञासु है । तुम्हारा उपदेश पाकर वह प्रतिबुद्ध होगा। तुम वहाँ जाओ और उसे प्रतिबुद्ध करो ।'
गौतम भगवान् के वचन को शिरोधार्य कर सोमशर्मा को प्रतिबोध देने चले
गए।
भगवान् दो दिन से उपवास कर रहे थे । जल भी नहीं ले रहे थे । उन्होंने इन दिनों में बहुत लम्बे प्रवचन किए। उनमें कर्मफल का विस्तार से विवेचन किया । अपना प्रवचन सम्पन्न कर भगवान् मौन हो गए। वे पद्मासन में बैठे थे । उनका शरीर स्थिर और शांत हो गया। वे इस स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर से भी मुक्त हो गए। जन्म और मृत्यु की शृंखला उनसे विच्छिन्न हो गई । ज्योति केवल ज्योति रह गई ।
वि.पू. ४७० (ई.पू. ५२७) पावापुर में कार्तिक कृष्णा अमावस्या के उषाकाल (चार घड़ी शेष रात्रि) में भगवान् का निर्वाण हुआ । उस समय भगवान् के पास सुधर्मा आदि अनेक साधु थे । मल्ल और लिच्छवि गणराज्य के अठारह राजे भी वहाँ उपस्थित थे । उस अवसर पर उन्होंने दीप जलाकर ज्योति से ज्योति की प्रशस्ति की ।
भगवान् तीस वर्ष की अवस्था में श्रमण बने, साढ़े बारह वर्ष तक तपस्वी जीवन बिताया और तीस वर्ष तक धर्मोपदेश दिया । भगवान् ने काशी, कौशल, पंचाल, कलिंग, कम्बोज, कुरु-जंगाल, बाह्लिक, गांधार, सिन्धु-सौवीर आदि देशों में विहार किया ।
भगवान् के चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियाँ बनीं । नन्दी सूत्र के अनुसार भगवान् के चौदह हजार साधु प्रकीर्णकार थे। इससे जान पड़ता है, सर्व साधुओं की संख्या और अधिक थी । १,५९,००० श्रावक और ३,१८,००० श्राविकाएं थी । यह व्रती श्रावक-श्राविकाओं की संख्या प्रतीत होती है। जैन धर्म का अनुगमन करने वालों की संख्या इससे अधिक थी, ऐसा सम्भव है ।
भगवान् राजकुल में जन्मे । वैभव में पले-पुसे । जैसे युवा बने वैसे ही उनका समत्व-चक्षु विकसित हुआ। वे समता की साधना में लगे । उसमें सिद्धि प्राप्त की। वे जनता के बीच रहे। उन्होंने जनता को शांति, समता और अनेकांत का मार्ग-दर्शन दिया। उनका दर्शन केवल व्यक्ति के लिए नहीं, समाज के लिए भी है। उनका धर्म केवल परलोक के लिए नहीं, वर्तमान लोक के लिए भी है । उनकी आधार - पद्धति से आन्तरिक समस्याएं ही नहीं सुलझतीं, समाज-व्यवस्था की