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भगवान् महावीर और उनकी शिक्षाएं
१९१ महावीर सिद्धान्त
महावीर का पहला सिद्धान्त था-समानता।
आत्मिक समानता की अनुभूति के बिना अहिंसा विफल हो जाती है। गणराज्य की विफलता का मूल हेतु है-विषमता।
महावीर का दूसरा सिद्धान्त था—आत्म-निर्णय का अधिकार ।
हमारे भाग्य का निर्णय किसी दूसरी सत्ता के हाथ में हो, वह हमारी सार्वभौम सत्ता के प्रतिकूल है-यह उन्होंने बताया। उन्होंने कहा- “दु:ख और सुख दोनों तुम्हारी ही सृष्टि है। तुम्ही अपने मित्र हो और तुम्हीं अपने शत्रु । यह निर्णय तुम्हीं को करना है, तुम क्या होना चाहते हो?" जनतंत्र के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। जहाँ व्यक्ति को आत्म-निर्णय का अधिकार नहीं होता, वहाँ उसका कर्तृव्य कुंठित हो जाता है। नव-निर्माण के लिए पुरुषार्थ और पुरुषार्थ के लिए आत्म-निर्णय का अधिकार आवश्यक है।
महावीर का तीसरा सिद्धान्त था—आत्मानुशासन ।
उन्होंने कहा-“दूसरों पर हुकूमत मत करो। हुकूमत करो अपने शरीर पर, अपनी वाणी पर और मन पर। आत्मा पर शासन करो, संयम के द्वारा, तपस्या के द्वारा। यह अच्छा नहीं होगा कि कोई व्यक्ति बध और बंधन के द्वारा तुम्हारे पर शासन करे ।”
जनतन्त्र की सफलता आत्मानुशासन पर निर्भर है। बाहरी नियन्त्रण जितना अधिक होता है, उतना ही जनतन्त्र निस्तेज होता है। उसकी तेजस्विता इस बात पर निर्भर है कि देशवासी लोग अधिक से अधिक आत्मानुशासित हों। __महावीर का चौथा सिद्धान्त था-सापेक्षता ।
उसका अर्थ है-सबको समान अवसर। बिलौना करते समय एक हाथ पीछे जाता है और दूसरा आगे आता है, फिर आगे वाला पीछे और पीछे वाला
आगे जाता है। इस क्रम से नवनीत निकलता है। चलते समय एक पैर आगे बढ़ता है, दूसरा पीछे। फिर आगे वाला पीछे और पीछे वाला आगे आ जाता है। इस क्रम में गति होती है। आदमी आगे बढ़ता है।
यह सापता ही म्यादवाद का रहस्य है। इसी के द्वारा सत्य का ज्ञान और उसका निरूपण होता है। यह सिद्धान्त जनतंत्र की रीढ़ है। कुछेक व्यक्ति सत्ता. अधिकारी और पद से चिपककर बैठ जाएं . दूसरों को अवसर न दें, तो असंतोष की ज्वाला भभक उठती है। यह सापेक्ष नीति गुटबन्दी को कम करने में काफी काम कर सकती है। नीतियाँ भिन्न होने पर भी यदि सापेक्षता हो, तो अवांछनीय अलगाव नहीं होता।