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जैन दर्शन का सापेक्षवाद : स्याद्वाद
१५१ वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, इसलिए विसदृश भी है और सदृश भी है। एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से विसदृश होता है, इसलिए कि उनके सब ,गुण समान नहीं होते। वे दोनो सदृश भी होते हैं, इसलिए कि उनके अनेक गुण सपान भी होते
चैतन्य गुण की दृष्टि से जीव पुद्गल से भिन्न है, तो अस्तित्व और प्रमेयत्व गुण की अपेक्षा पुद्गल से अभिन्न भी है। कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ से न सर्वथा भिन्न है और न सर्वथा अभिन्न, किन्तु भिन्नाभिन्न है। वह विशेष गुण की दृष्टि से भिन्न है और सामान्य गुण की दृष्टि से अभिन्न ।।
शरीर आत्मा की पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति का साधन बनता है, इसलिए वह उससे अभिन्न है। आत्मा चेतन है, शरीर अचेतन है। वह पुनर्भवी है, शरीर एकभवी है इसलिए वे दोनों भिन्न हैं। स्थूल शरीर की अपेक्षा शरीर रूपी है और सूक्ष्म शरीर की अपेक्षा अरूपी है। शरीर आत्मा से कथंचित् अपृथक् भी है, इस दृष्टि से जीवित शरीर चेतन है। वह पृथक् भी है, इस दृष्टि से अचेतन, मृत शरीर अचेतन होता ही है।
यह पृथ्वी स्यात् है, स्यात् नहीं है और स्यात् अवक्तव्य है। वस्तु स्व-दृष्टि से है, पर-दृष्टि से नहीं है। इसलिए वह सत्-असत् उभयरूप है। एक काल में एक धर्म की अपेक्षा वस्तु वक्तव्य है और एक काल में अनेक धर्मों की अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है। इसलिए वह उभयरूप है। जिस रूप में सत् है, उस रूप में सत् ही है और जिस रूप में असत् है, उस रूप में असत् ही है। वक्तव्य-अवक्तव्य का यही रूप बनता है।
इस आगम-पद्धति के आधार पर दार्शनिक युग में स्याद्वाद का रूप चतुष्टय बना
१. वस्तु स्यात् नित्य है, स्यात् अनित्य है। २. वस्तु स्यात् सामान्य है, स्यात् विशेष है। ३. वस्तु स्यात् सत् है, स्यात् असत् है। ४. वस्तु स्यात् वक्तव्य है, स्यात् अवक्तव्य है।
उक्त चर्चा में कहीं भी ‘स्यात्' शब्द संदेह के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ। सप्तभंगी
अपनी सत्ता का स्वीकार और पर-सत्ता का अस्वीकार ही वस्तु का वस्तुत्व है। यह स्वीकार और अस्वीकार दोनों एकाश्रयी होते हैं। वस्तु में 'स्व' की सत्ता की भाँति ‘पर' की असत्ता नहीं हो, तो उसका स्वरूप ही नहीं बन सकता। वस्तु के स्वरूपा का प्रतिपादन करते समय अनेक विकल्प करने आवश्यक है :