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________________ १५० जैन दर्शन और संस्कृति इसका प्रयोग अनेकान्त के अर्थ में होता है। स्यादवाद अर्थात् अनेकान्तात्मक वाक्य। स्याद्वाद की नींव है अपेक्षा। अपेक्षा वहाँ होती है, जहाँ वास्तविक एकता और ऊपर से विरोध दीखे। विरोध वहाँ होता है, जहाँ निश्चय होता है। दोनों संशयशील हों, उस दिशा में विरोध नहीं होता। स्याद् का अर्थ है-कथंचिद्-किसी एक अपेक्षा से। स्याद्वाद का उद्गम अनेकान्त वस्तु है। तत्स्वरूप वस्तु के यथार्थ ग्रहण के लिए अनेकान्त दृष्टि है। स्यावाद उस दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। वह निमित्तभेद या अपेक्षाभेद से निश्चित विरोधी धर्म-युगलों का विरोध मिटाने वाला है। जो वस्तु सत् है, वही असत् भी है, किन्तु जिस रूप से . सत् है, उसी रूप से असत् नहीं है। स्वरूप की दृष्टि से सत् है और पर-रूप की दृष्टि से असत् । दो निश्चित दृष्टि-बिन्दुओं के आधार पर वस्तु-तत्त्व का प्रतिपादन करने वाला वाक्य संशयरूप हो ही नहीं सकता। स्याद्वाद की अपेक्षावाद या कथंचिद्वाद भी कहा जा सकता है। भगवान् महावीर ने स्याद्वाद की पद्धति से अनेक प्रश्नों का समाधान किया है। उसे आगमयुग का अनेकान्तवाद या स्यावाद कहा जाता है। ' दार्शनिक युग में उसी का विस्तार हुआ, किन्तु उसका मूल रूप नहीं बदला। 'जीव शाश्वत है'—इसमें शाश्वत धर्म मुख्य है और शाश्वत धर्म गौण । 'जीव अशाश्वत है'—इसमें अशाश्वत धर्म मुख्य है और : शाश्वत धर्म गौण। यह द्विरूपता वस्तु का स्वभाव-सिद्ध धर्म है। काल-भेद या एकरूपता हमारे वचन से उत्पन्न है। शाश्वत और अशाश्वत का काल भिन्न नहीं होता। फिर भी हम पदार्थ को शाश्वत या अशाश्वत कहते हैं—यह सापेक्ष व्याख्या है। पदार्थ का नियम न शाश्वतवाद है और न उच्छेद्वाद। ये दोनों उसके सतत सहचारी धर्म हैं। भगवान् महावीर ने इन दोनों समन्वित धर्मों के आधार पर जात्यन्तरवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा—“पदार्थ न शाश्वत है और न अशाश्वत। वह 'स्यात् शाश्वत' है-और 'स्यात् अशाश्वत' है—वह उभयात्मक हैं, फिर भी जिस दृष्टि (द्रव्य-दृष्टि) से शाश्वत है, उससे शाश्वत ही है। जिस दृष्टि (पर्याय-दृष्टि) से अशाश्वत है, उससे अशाश्वत ही है। जिस दृष्टि से शाश्वत है, उसी दृष्टि से अशाश्वत नहीं है और जिस दृष्टि से अशाश्वत है, उसी दृष्टि से शाश्वत नहीं है। एक ही पदार्थ एक ही काल में शाश्वत और अशाश्वत-इस विरोधी धर्मयुगल का आधार है, इसलिए वह अनेक धर्मात्मक है। ऐसे अनन्त विरोधी धर्मयुगलों का वह आधार है, इसलिए अनन्तधर्मात्मक है।" .
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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