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मैं कौन हूँ ?
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यांत्रिक मस्तिष्क का गणन यंत्र मोटर में लगे मीटर की तरह होता है, जिसमें मोटर के चलने की दूरी मीलों में अंकित होती चलती है । इस गणनयन्त्र का कार्य, 'एक' और 'शून्य' अंक को जोड़ना अथवा एकत्र करना है । यदि गणन यंत्र से इन अंकों को निकाला जाता है तो इससे घटाने की क्रिया होती है और जोड़-घटाव की दो क्रियाओं पर ही सारा गणित आधारित है ।
आत्मा के प्रदेश और जीवकोश
आत्मा असंख्य-प्रदेशी है। एक, दो, तीन प्रदेश जीव नहीं होते । परिपूर्ण असंख्य प्रदेश के समुदाय का नाम जीव है । वह असंख्य जीवकोषों का पिण्ड नहीं है। वैज्ञानिक असंख्य जीवकोषों (cells) के द्वारा प्राणी - शरीर और चेतन का निर्माण होना बतलाते हैं । वे शरीर तक सीमित हैं । शरीर अस्थाई है - एक पौद्गलिक अवस्था है । उसका निर्माण होता है और वह रूपी है; इसलिए अंगोपांग देखे जा सकते हैं । उनका विश्लेषण किया जा सकता है। आत्मा स्थायी और अभौतिक द्रव्य है । वह उत्पन्न नहीं होता और वह अरूपी है, किसी प्रकार भी इन्द्रिय-शक्ति से देखा नहीं जाता। अतएव जीव-कोषों के द्वारा आत्मा की उत्पत्ति बतलाना भूल है । प्रदेश भी आत्मा के घटक नहीं हैं । वे स्वयं आत्मरूप हैं। आत्मा का परिमाण जानने के लिए उसमें उनका आरोप किया गया है । यदि वे वास्तविक अवयव होते तो उनमें संगठन, विघटन या न्यूनाधिक्य हुए बिना नहीं रहता। वास्तविक प्रदेश केवल पौद्गलिक स्कंधों में मिलते हैं । अतएव उनमें संघात या भेद होता रहता है । आत्मा अखण्ड द्रव्य है । उसमें संघात - विघात कभी नहीं होते और न उसके एक-दो - तीन आदि प्रदेश जीव कहे जाते हैं । आत्मा कृत्स्न, परिपूर्ण लोकाकाश तुल्य प्रदेश परिमाण वाली है । एक तन्तु भी पट का उपकारी होता है। उसके बिना पट पूरा नहीं बनता । परन्तु एक तन्तु पट नहीं कहा जाता। एक रूप में समुदित तन्तुओं का नाम पट है । वैसे ही जीव का एक प्रदेश जीव नहीं कहा जाता। असंख्य चेतन प्रदेशों का एक पिण्ड है, उसी का नाम जीव है ।
अस्तित्व-सिद्धि के दो प्रकार
प्रत्येक पदार्थ का अस्तित्व दो प्रकार से सिद्ध होता है— साधक प्रमाण से और बाधक प्रमाण के अभाव से । जैसे साधक प्रमाण अपनी सत्ता के माध्यम कां अस्तित्व सिद्ध करता है, ठीक उसी प्रकार बाधक प्रमाण न मिलने से भी उसका अस्तित्व सिद्ध हो जाता है । आत्मा को सिद्ध करने के लिए साधक प्रमाण अनेक
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