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________________ मैं कौन हूँ ? ११७ गुणात्मक परिवर्तन होने पर, वह पानी नहीं रहता। वैसे चेतना का पहले रूप क्या था जो मिटकर चेतना को पैदा कर सका? इसका कोई समाधान नहीं मिलता। "पानी को गर्म कीजिए तो बहुत समय तक वह पानी ही बना रहेगा। उसमें पानी के सभी साधारण गुण मौजूद रहेंगे, केवल उसकी गर्मी बढ़ती जाएगी। इसी प्रकार पानी को ठंडा कीजिए तो एक हद तक वह पानी ही बना रहता है, लेकिन उसकी गर्मी कम हो जाती है। परन्तु एक बिन्दु पर परिवर्तन का यह क्रम यकायक टूट जाता है। शीत या उष्ण (वैज्ञानिक शब्दावली में गलनांक और क्वथनांक) बिन्दु पर पहुंचते ही पानी के गुण एकदम बदल जाते हैं। पानी पानी नहीं रहता, बल्कि बर्फ या भाप बन जाता है।" जैसे निश्चित बिन्दु पर पहुँचने पर पानी भाप या बर्फ बनता है, वैसे ही भौतिकता का कौन-सा निश्चित बिन्दु है जहाँ पहुँचकर भौतिकता चेतना के रूप में परिवर्तित होती है? मस्तिष्क के घटक तत्त्व हैं-हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, कार्बन, फास्फोरस आदि-आदि। इनमें से कोई एक तत्त्व चेतना का उत्पादक है या सबके मिश्रण से वह उत्पन्न होती है और कितने तत्त्वों की कितनी मात्रा बनने पर वह पैदा होती है? —इसका कोई ज्ञान अभी तक नहीं हुआ है। चेतना भौतिक तत्त्वों - के मिश्रण से पैदा होती है या वह भौतिकता का गुणात्मक परिवर्तन है, यह तब तक वैज्ञानिक सिद्धांत नहीं बन सकता, जब तक भौतिकता के उस चरम-बिन्दु की, जहाँ पहुँचकर यह चेतना के रूप में परिवर्तित होता है, निश्चित जानकारी न मिले। इन्द्रिय और मस्तिष्क आत्मा नहीं .. आँख, कान आदि नष्ट होने पर भी उनके द्वारा विज्ञात विषय की स्मृति रहती है। इसका कारण यही है कि आत्मा देह और इन्द्रिय से भिन्न है। यदि ऐसा न होता तो इन्द्रिय के नष्ट होने पर उनके द्वारा किया हुआ ज्ञान भी चला जाता। इन्द्रिय के विकृत होने पर भी पूर्व-ज्ञान विकृत नहीं होता। इससे प्रमाणित होता है कि ज्ञान का अधिष्ठान इन्द्रिय से भिन्न है। वह आत्मा है। इस पर कहा जा सकता है कि इन्द्रिय बिगड़ जाने पर जो पूर्व-ज्ञान की स्मृति होती है, उसका कारण है मस्तिष्क, आत्मा नहीं। मस्तिष्क स्वस्थ होता है, तब तक स्मृति है। उसके बिगड़ जाने पर स्मृति नहीं होती। इसलिए “मस्तिष्क ही ज्ञान का अधिष्ठान है; उससे पृथक् आत्मा नामक तत्त्व को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं।" यह तर्क भी आत्मवादी के लिए नगण्य है। जैसे इन्द्रियाँ बाहरी वस्तुओं को जानने के साधन हैं, वैसे ही मस्तिष्क इन्द्रिय-ज्ञान विषयक चिंतन और स्मृति का साधन है। उसके विकृत होने पर यथार्थ स्मृति नहीं होती।
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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