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जैन दर्शन और संस्कृति शरीर और आत्मा
शरीर और आत्मा का क्या सम्बन्ध है? मानसिक विचारों का हमारे शरीर तथा मस्तिष्क के साथ क्या सम्बन्ध है? इन प्रश्नों के उत्तर में तीन वाद प्रसिद्ध
१. एक पाक्षिक-क्रियावाद (भूत-चैतन्यवाद)। २. मनोदैहिक सहचरवाद । ३. अन्योन्याश्रयवाद।
भूत-चैतन्यवादी केवल शारीरिक व्यापारों को ही मानसिक व्यापारों का कारण मानते हैं। उनकी सम्मति में आत्मा शरीर की उपज है। मस्तिष्क की विशेष कोष्ठ-क्रिया ही चेतना है। ये प्रकृतिवादी भी कहे जाते हैं। आत्मा को प्रकृति-जन्य सिद्ध करने के लिए ये इस प्रकार अपना अभिमत प्रस्तुत करते हैं। पाचन आमाशय की क्रिया का नाम है। श्वासोच्छ्वास फेफड़ों की क्रिया का नाम है। वैसे ही चेतना (आत्मा) मस्तिष्क की कोष-क्रिया का नाम है। यह भूत-चैतन्यवाद का एक संक्षिप्त रूप है। आत्मवादी इसका निरसन इस प्रकार करते हैं—“चेतना मस्तिष्क के कोषों की क्रिया है।" इसमें द्वयर्थक क्रिया शब्द का समानार्थक प्रयोग किया गया है। आमाशय की क्रिया और मस्तिष्क की क्रिया में बड़ा भारी अन्तर है। क्रिया शब्द का दो बार का प्रयोग विचार-भेद का द्योतक है। जब हम यह कहते हैं कि पाचन आमाशय की क्रिया का नाम है, तब पाचन और आमाशय की क्रिया में भेद नहीं समझते। पर जब मस्तिष्क की कोष-क्रिया का विचार करते हैं; तब उस क्रिया-मात्र को चेतना नहीं समझते। चेतना का विचार करते हैं, तब मस्तिष्क की कोष-क्रिया का किसी प्रकार का ध्यान नहीं आता। ये दोनों घटनाएं सर्वथा विभिन्न हैं। पाचन से आमाशय की क्रिया का बोध हो आता है और आमाशय की क्रिया से पाचन का। पाचन और आमाशय की क्रिया-ये दो घटनाएं नहीं, एक ही क्रिया के दो नाम हैं। आमाशय, हृदय और मस्तिष्क तथा शरीर के सारे अवयव चेतनाहीन तत्त्व से बने हुए होते हैं। चेतनाहीन से चेतना उत्पन्न नहीं हो सकती। इसी आशय को स्पष्ट करते हुए पादरी बटदार ने लिखा है-"आप हाइड्रोजन तत्त्व के मृत परमाणु, आक्सीजन तत्त्व के मृत परमाणु, कार्बन तत्त्व के मृत परमाणु, नाइट्रोजन के मृत परमाणु, फास्फोरस तत्त्व के मृत परमाणु तथा बारूद की भांति उन समस्त तत्त्वों के मृत परमाणु जिनसे मस्तिष्क बना है, ले लीजिए। विचारिए कि ये परमाणु पृथक्-पृथक् एवं ज्ञान-शून्य हैं, फिर विचारिए कि ये परमाणु साथ-साथ दौड़ रहे हैं