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जैन दर्शन और संस्कृति यह कहूं कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदवादी हो जाते हैं। इसलिए उन दोनों का निराकरण करने के लिए मैं मौन रहता हूँ।" __बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन लिखते हैं-"बुद्धं ने यह भी कहा कि आत्मा है और यह भी कहा कि आत्मा नहीं है। बुद्ध ने आत्मा या अनात्मा किसी का भी उपदेश नहीं किया।”
बुद्ध ने 'आत्मा क्या है, कहाँ से आया है और कहाँ जाएगा?'-इन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर दुःख और दुःख-निरोध—इन दो तत्त्वों का ही मुख्यतया उपदेश दिया। बुद्ध ने कहा—“तीर से आहत पुरुष के घाव को ठीक करने की बात सोचनी चाहिए। तीर कहाँ से आया, किसने मारा आदि-आदि प्रश्न करना व्यर्थ है।"
- बुद्ध का यह 'मध्यम-मार्ग' का दृष्टिकोण है। कुछ बौद्ध दार्शनिक मन को भौतिक तत्त्वों (जड़ या matter) से अलग स्वीकार करते हैं।
नैयायिक दर्शन-नैयायिकों के अनुसार आत्मा नित्य और विभु है। इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुःख, ज्ञान-ये उसके लिंग हैं। इनसे हम उसका अस्तित्व जानते
हैं।
सांख्य दर्शन-सांख्य दर्शन आत्मा को नित्य और निष्क्रिय मानता है, जैसे
“अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्य: सर्वगतोऽक्रियः ।
अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्मः, आत्मा कपिलदर्शने ॥" सांख्य दर्शन जीव को कर्ता नहीं मानता, फल-भोक्ता मानता हैं। उसके मनानुसार कर्तृव-शक्ति प्रकृति है।
वैशेषिक दर्शन-वैशेषिक सुख-दुःख आदि की समानता की दृष्टि से आत्मैक्यवादी और व्यवस्था की दृष्टि से आत्मानैवयवादी हैं।
वेदान्त दर्शन-वेदान्ती अन्त:करण से परिवेष्टित चैतन्य को जीव बतलाते हैं। उनके अनुसार- "एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थित:"-स्वभावत: जीव एक है, परन्तु देहादि उपाधियों के कारण नाना प्रतीत होता है। __ परन्तु रामानुज-मत में जीव अनन्त हैं, वे एक-दूसरे से सर्वथा पृथक् हैं।
उपनिषद् और गीता के अनुसार आत्मा शरीर से विलक्षण, मन से भिन्न, विभु-व्यापक और अपरिणामी है। वह वाणी द्वारा अगम्य है। उसका विस्तृत स्वरूप नेति-नेति द्वारा बताया है। वह न स्थूल है, न . अणु है, न क्षुद्र है, न विशाल है, न अरुण है, न द्रव है, न छाया है, न तम है, न वायु है, न आकाश