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मैं कौन हूँ ?
४. सत् - प्रतिपक्ष - जिसके प्रतिपक्ष का अस्तित्व नहीं है उसके अस्तित्व को तार्किक समर्थन नहीं मिल सकता । यदि चेतन नामक सत्ता नहीं होती, तो 'न चेतन — अचेतन' — इस अचेतन सत्ता का नामकरण और बोध ही नहीं होता ।
५. बाधक प्रमाण का अभाव - अनात्मवादी - आत्मा नहीं है, क्योंकि उसका कोई साधक प्रमाण नहीं मिलता ।
आत्मवादी - आत्मा है, क्योंकि उसका कोई बाधक प्रमाण नहीं मिलता । ६. सत् का निषेध - जीव यदि न हो, तो उसका निषेध नहीं किया जा सकता । असत् का निषेध नहीं होता । जिसका निषेध होता है, वह अस्तित्व में अवश्य होता है ।
निषेध चार प्रकार के हैं१. संयोग
३. सामान्य
२. समवाय
४. विशेष ।
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'मोहन घर में नहीं है' यह संयोग-प्रतिषेध है । इसका अर्थ यह नहीं कि मोहन है ही नहीं, किन्तु 'वह घर में नहीं है' '– यह 'गृह-संयोग' का प्रतिषेध है। 'खरगोश के सींग नहीं होते' – यह समवाय प्रतिषेध है । खरगोश भी होता है और सींग भी । इनका प्रतिषेध नहीं है । वहाँ केवल ' खरगोश के सींग' - इस समभाव का प्रतिषेध है 1
'दूसरा चांद नहीं है' इसमें चन्द्र के सर्वथा अभाव का प्रतिपादन नहीं, किन्तु उसके सामान्य-मात्र का निषेध है । 'मोती घड़े - जितने बड़े नहीं हैं' – इसमें मुक्ता का अभाव नहीं, किन्तु 'घड़े - जितने बड़े' - यह जो विशेषण है उसका प्रतिषेध है ।
आत्मा नहीं है, इसमें आत्मा का निषेध नहीं, किन्तु उसका किसी के साथ होने वाले संयोग का निषेध है ।
७. इन्द्रिय- प्रत्यक्ष का वैकल्प - यदि इन्द्रिय- प्रत्यक्ष नहीं होने मात्र से आत्मा का अस्तित्व नकारा जाय, तो प्रत्येक सूक्ष्म, व्यवहित (बीच में व्यवधान वाली) और विप्रकृष्ट (दूरस्थ) वस्तु के अस्तित्व को अस्वीकार करना होगा । इन्द्रिय- प्रत्यक्ष से मूर्त तत्त्व का ग्रहण होता है । आत्मा अमूर्त तत्त्व है, इसलिए इन्द्रियाँ उसे नहीं जान पातीं। इससे इन्द्रिय- प्रत्यक्ष का वैकल्प सिद्ध होता है, आत्मा का अनस्तित्व सिद्ध नहीं होता ।
८. गुण द्वारा गुणी का ग्रहण -चैतन्य गुण है और चेतन गुणी । चैतन्य प्रत्यक्ष है, चेतन प्रत्यक्ष नहीं है । परोक्ष गुणी की सत्ता प्रत्यक्ष गुण से प्रमाणित हो जाती है । तहखाने में बैठा आदमी प्रकाश को देखकर सूर्योदय का ज्ञान कर लेता है ।