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जैन दर्शन और संस्कृति अध्यात्मवाद के अनुसार आत्मा इन्द्रिय और मन के प्रत्यक्ष नहीं, इसलिए वह नहीं है, यह मानना त बाधित है, क्योंकि वह अमूर्तिक है; इसलिए इन्द्रिय - और मन के प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकती। भारतीय दर्शन में आत्मा के साधक तर्क
किसी भी भारतीय व्यक्ति को आम के अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्ष-सिद्ध वस्तु के विषय में संदेह नहीं होता। जिन देशों में आम नहीं होता, उन देशों की जनता के लिए आम परोक्ष है। परोक्ष वस्तु के विषय में तो हमारा ज्ञान ही नहीं होता, यदि सुन या पढ़ कर ज्ञान होता है तो वह साधक बाधक तर्कों की कसौटी से कसा हुआ होता है। साधक प्रमाण बलवान् होते हैं, तो हम परोक्ष वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं और बाधक प्रमाण बलवान् होते हैं, तो हम उसके अस्तित्व को नकार देते हैं।
भारत में जैसे आम प्रत्यक्ष है, वैसे ही आत्मा प्रत्यक्ष होती तो भारतीय दर्शन का विकास आठ आना ही हुआ होता। आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है। उसका चिंतन, मंथन, मनन- और दर्शन भारत में इतना हुआ है कि आत्मवाद भारतीय दर्शन का प्रधान अंग बन गया। यहाँ अनात्मवादी भी रहे हैं, किन्त आत्मवादियों की तुलना में आटे में नमक जितने ही रहे हैं। अनात्मवादियों की संख्या भले कम रही हो, उनके तर्क कम नहीं रहे हैं। उन्होंने समय-समय पर आत्मा के बाधक तर्क प्रस्तुत किये हैं। उनके विपक्ष में आत्मवादियों द्वारा आत्म के साधक-तर्क प्रस्तुत किए गए। संक्षेप में उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है
१. स्व-संवेदन-अपने अनुभव से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। 'मैं हूँ', 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दु:खी हूँ'-'यह अनुभव शरीर को नहीं होता किन्तु उसे होता है, जो शरीर से भिन्न है। शंकराचार्य के शब्दों में—'सर्वोप्यात्माऽस्तित्वं प्रत्येति, न नाहमस्मीति'-सबको यह विश्वास होता है कि 'मैं हूँ। यह विश्वास किसी को नहीं होता कि 'मैं नहीं हूँ।'
२. अत्यन्ताभाव-इस तार्किक नियम के अनुसार चेतन और अचेतन में त्रैकालिक विरोध है। जैन-आचार्यों के शब्दों में 'न कभी ऐसा हुआ है, न हो रहा है और न होगा कि जीव अजीव बन जाए और अजीव जीव बन जाए।'
३. उपादान कारण-इस तार्किक नियम के अनुसार जिस वस्तु का जैसा उपादान कारण होता है, वह उसी रूप में परिणत होती है। अचेतन के उपादान चेतन में नहीं बदल सकते ।