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________________ ८६ जैन दर्शन और संस्कृति इसमें हमें निश्चय होता है कि प्राणियों की शरीर के माध्यम से होने वाली जितनी क्रियाएँ हैं, वे सब आत्म-शक्ति और पौद्गलिक-शक्ति दोनों के पारस्परिक सहयोग से ही होती हैं। इन्द्रिय-ज्ञान और पाँच जातियाँ इन्द्रिय-ज्ञान परोक्ष है इसलिए परोक्ष-ज्ञानी को पौद्गलिक इन्द्रिय की अपेक्षा रहती है। किसी मनुष्य की आंख फूट जाती है, फिर भी वह चतुरिन्द्रिय नहीं होता। उसकी दर्शन-शक्ति कहीं नहीं जाती किन्तु आंख के अभाव में उसका उपयोग नहीं होता। आंख में विकार होता है, दीखना बंद हो जाता है। उसकी उचित चिकित्सा हुई, दर्शन-शक्ति खुल जाती है। यह पौद्गलिक इन्द्रिय (चक्षु) के सहयोग का परिणाम है। कई प्राणियों में सहायक इन्द्रियों के बिना भी उसके ज्ञान का आभास मिलता है, किन्तु वह उनके होने पर जितना स्पष्ट होता है, उतना स्पष्ट उनके अभाव में नहीं होता। वनस्पति में स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के चिह्न मिलते हैं। उनमें भावेन्द्रिय का पूर्ण विकास और सहायक इंद्रिय का सद्भाव नहीं होता, इसलिए वे इकेन्द्रिय ही कहलाते हैं। उक्त विवेचन से दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला यह कि इन्द्रिय ज्ञान-चेतन-इन्द्रिय और जड़-इन्द्रिय दोनों के सहयोग से होता है फिर भी जहाँ तक ज्ञान का संबंध है, उसमें चेतन-इन्द्रिय की प्रधानता है। दूसरा निष्कर्ष यह है कि प्राणियों की एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये पाँच जातियाँ बनने में दोनों प्रकार की इन्द्रियाँ कारण हैं, फिर भी यहाँ द्रव्येन्द्रिय की प्रमुखता है। एकेन्द्रिय में अतिरिक्त भावेन्द्रिय के चिह्न मिलने पर भी वे शेष बाह्य इन्द्रियों के अभाव में पंचेन्द्रिय नहीं कहलाते। मानस-ज्ञान और संज्ञी-असंज्ञी इन्द्रिय के बाद मन का स्थान है। यह भी परोक्ष है। पौदगलिक मन के बिना इसका उपयोग नहीं होता। इन्द्रिय-ज्ञान से इसका स्थान ऊँचा है। प्रत्येक इन्द्रिय का अपना-अपना विषय नियत होता है, मन का विषय अनियत। यह सब विषयों को ग्रहण करता है। इन्द्रिय-ज्ञान वार्तमानिक होता है, मानस-ज्ञान कालिक। इन्द्रिय-ज्ञान में तर्क-वितर्क नहीं होता, मानस-ज्ञान आलोचनात्मक होता है। मानस-प्रवृत्ति का प्रमुख साधन मस्तिष्क है। कान का पर्दा फट जाने पर कर्णेन्द्रिय का उपयोग नहीं होता. वैसे ही मस्तिष्क की विकृति हो जाने पर
SR No.006270
Book TitleJain Darshan Aur Sanskriti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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