SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करतंपि अन्नं न समणुजाणामि। मणसा, वयसा, कायसा। ऐसे अठारह पाप-स्थानक पच्चक्ख के सव्वं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं चउव्विहं पि आहारं पच्चक्खामि । जावजीवाए-जं पि य इमं सरीरं इटुं, कंतं, पियं, मणुण्णं, मणाम, धिजं, वेसासियं, सम्मयं, अणुमयं, बहुमयं, भण्ड-करण्डगसमाणं, माणं सीयं, मा णं उण्हं, माणं खुहा, माणं पिवासा, मा णं बाला, मा णं वाइयपित्तिय-कप्फिय-संभिय सन्निवाइयं, विविह रोगायंका. परिसहोवसग्गा. फुसन्त त्ति कटु, एवं पिणं चरमेहि, उस्सास-नीसासेहिं, वोसिरामि त्ति कटु, ऐसे शरीर को वोसिरा कर, "कालं अणवकंखमाणे विहरामि" ऐसी मेरी श्रद्धा प्ररूपणा है। स्पर्शना करूँ तोशद्ध होऊँ। ऐसी अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा के विषय में जो कोई अतिचार लगा हो तो आलोऊँ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र
SR No.006269
Book TitleShravak Pratikraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushkarmuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy