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की है कि ईश्वर चाहे तो जीव को उसके किये कर्मों का फल न भी दे, अथवा अत्यल्प दे, या बढ़ादे।
किन्तु यह मान्यता तर्कसंगत नहीं है। यदि ईश्वर इस प्रकार का पक्षपात करेगा तो उसके ईश्वरत्व में ही दोष लग जायेगा।
इसीलिए जैन धर्म ने फल-प्रदान करने में किसी अन्य माध्यम को स्वीकार ही नहीं किया। जैन मान्यता के अनुसार कर्म स्वयं ही फल देते हैं। स्वयं करो, स्वयं भरो-यह कर्म थ्योरी का मूल है। कर्म सिद्धान्त की उपयोगिता ।
कर्म, उनके बन्ध, उदय, उदीरणा, फलप्रदान शक्ति, कर्म की निर्जरा, झड़ जाना आदि रूप में कर्म सिद्धान्त की जैन दर्शन में बड़ी गहराई से समीक्षा और मीमांसा की गई है, तलस्पर्शी विवेचन किया गया है। इसका कारण यह है कि कर्मों का ज्ञान मानव की आध्यात्मिक उन्नति का हेतु तो बनता ही है, व्यावहारिक जीवन में भी इसकी अत्यधिक उपयोगिता है। नैतिक जीवन का प्रेरक.
एक स्थान पर बैजामिन फ्रेंकलिन ने कहा