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१४ जैन धर्म की नैतिकता तथा धार्मिकता का मूल आधार अहिंसा है। सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि अनेक गुणों को भी अहिंसा की समग्रता के लिए अनिवार्य रूप से स्वीकृत किया गया है। - सत्य के लिए कहा गया है-सच्चं खु अणवज्ज वयन्ति-निर्दोष, अपापकारी सत्य बोलना चाहिए। ऐसा सत्य भी असत्य की ही कोटि में है जिससे किसी का दिल दुखे, जो मर्मकारी हो-जैसे चोर को चोर कहना। ऐसा कथन सत्य नहीं, गाली बन जाता है।
इसका अभिप्राय यह है कि सत्य भी वही सत्य है जिसमें अहिंसा की भावना अनुस्यूत हो अथवा जिसका आधार अहिंसा हो।
अहिंसा एक प्रकार की मानसिक शुद्धि है, मन की कोमलता और मृदुता है। मन जब शुद्ध, कोमल, मृदु होगा तो हमारी वाणी कभी भी कठोर, कर्कश, हृदय पर चोट करने वाली नहीं होगी। हमारे हाथ और हमारी आँखें, हमारा व्यवहार और व्यापार, किसी की चोरी नहीं करेंगे, हमारी इन्द्रियां दुष्कर्म नहीं करेंगी क्योंकि अहिंसा उन सबको पहले ही शुद्ध कर