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लेकिन जैन धर्मानुमोदित तप न तो देह-पीड़ा है और न चमत्कार-प्रदर्शन, तथा न लब्धि आदि की प्राप्ति का प्रयास ही है । यह तो एकमात्र कर्म-निर्जरा और आत्म-विशुद्धि का प्रयास है ।
जैन साधक इसी उद्देश्य से तप करता है-चाहे वह साधक श्रमण हो, अथवा श्रावक; उसका एकमात्र यही उद्देश्य होता
चातुर्मास का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य है-समाज-संगठन । साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका रूप चारों तीर्थ एक स्थान पर एकत्रित होते हैं । उस समय संगठन की भावना बलवती होती है । साधु- साध्वी भी प्रेरणा देते हैं । श्रावक-श्राविका भी इस पर विचार करते हैं कि संगठन कैसे मजबूत हो?
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