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(२५) (असातावेदनीय आदि) की निर्जरा होती है । जिससे तेजस् शरीर की शुद्धि होती है । अतः साधक को औदारिक शरीर में रोग आदि की बाधा नहीं सताती अथवा बहुत कम सताती है, रोग आदि व्याधि निष्प्रभावी हो जाते हैं।
(१४) महामंत्र की साधना से इच्छाओं का विसर्जन तथा उन्मूलन होता है । .
(१५) सुख-दुःख आदि सभी द्वैधभावों के प्रति उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन हो जाता है । हर्ष-शोक आदि के भावों में क्षीणता आती है, हर्ष की स्थिति में साधक फूलकर गर्वोन्मत्त नहीं होता, और शोकपूर्ण परिस्थितियों में हताश निराश होकर संतापित नहीं होता । उसमें सहजता आती है । मोह आसक्ति कम होती है और तितिक्षा भाव बढ़ता है।
(१६) साधक की चैतन्य शक्ति व वीर्यशक्ति का समन्वित विकास होता है ।