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सजगता, हिताहित-विवेक का प्राधान्य हो जाता है।
धर्माचरण के जो तत्व-अहिंसा, अपरिग्रह, अनाग्रह आदि पहले शब्द रूप में थे, अब वे जीवन-व्यवहार का आकार ग्रहण कर लेते हैं । उसके जीवन का कण-कण धर्ममय बन जाता है, लौकिक अथवा संसार संबंधी सभी व्यवहार धर्म से अनुप्राणित हो जाते हैं । जीवन की दिशा ही परिवर्तित होकर धर्मोन्मुखी हो जाती है । अलिप्तता, अनासक्ति, सुख-दुःख-द्वन्द्वातीत अवस्था उसके जीवन में चरितार्थ होती है ।
भय की भावना उसके मन से तिरोहित हो जाती है । संक्षेप में वह जीवन-कला में निष्णात हो जाता है । सुख-शांतिपूर्वक उसका जीवन व्यतीत होता है ।
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