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हृदय में मत रख और कर्म न करने का भी आग्रह करना उचित नहीं है । इसका भाव यही है कि फल की इच्छा न रखकर कर्म किया जाना चाहिए।
जब इच्छा ही न होगी तो फल प्राप्त हो अथवा न हो; उसमें सुख अथवा दुःख की अनुभूति भी न होगी । कर्म के साथ आशा, इच्छा, महत्वाकांक्षा आदि का संबंध टूट जाने पर मानव को तनाव भी नहीं होगा, वह सुख-दुःख की भावनाओं से अतीत हो जायेगा; दुःख उसे सालेगा नहीं और सुख फुलायेगा नहीं। - इस प्रकार स्थितप्रज्ञ जैसी स्थिति निर्मित हो जायेगी जो सभी प्रकार की आसक्ति से रहित होती है।
गीता का यह निष्काम कर्मयोग सिद्धान्ततः उचित है, लेकिन सबसे बड़ी
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