SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 32... शंका नवि चित्त धरिये ! से हमारे भीतर भी उन गुणों का सिंचन होता है तथा स्तुति, भजन आदि से हमारा मन परमात्म भक्ति में तल्लीन हो जाता है। कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि जब नामस्मरण या गुणस्तवना के द्वारा तल्लीनता आ सकती है तो फिर द्रव्य पूजा की क्या आवश्यकता ? किसी अपेक्षा से यह बात सही है किन्तु मनुष्य मन की चंचलता से सभी परिचित है। मनुष्य का मन एक स्थान पर अधिक समय तक एकाग्र नहीं रह सकता उसे विविधता चाहिए। द्रव्यपूजा के भिन्न-भिन्न विधानों से मन को परमात्म भक्ति हेतु विविध आलम्बन मिल जाते हैं। इससे सांसारिक द्रव्यों के प्रति रही आसक्ति न्यून हो जाती है और द्रव्य का भी सदुपयोग होता है। द्रव्यपूजा भाव पूजा हेतु भूमिका का निर्माण होता है अतः द्रव्यपूजा अवश्य करनी चाहिए। शंका- पूजा में धर्म और लाभ दोनों है किन्तु उसमें आंशिक हिंसा भी है, जबकि सामायिक में केवल लाभ ही है दोष नहीं। तो फिर अधिक से अधिक सामायिक ही करनी चाहिए ? समाधान- यदि अनुकूलता एवं सामर्थ्य हो तो श्रावक को अधिक से अधिक सामायिक ही नहीं अपितु आजीवन के लिए सामायिक ले लेनी चाहिए। परंतु जहाँ तक आंशिक हिंसा का सवाल है तो वह प्रत्येक कार्य में समाहित है । चाहे फिर वह प्रवचन श्रवण हो, स्थानक निर्माण हो या गुरु वंदन, सभी में आंशिक हिंसा रही हुई है, पर यह तर्क मात्र जिनपूजा के विरोध में ही दिया जाता है। वस्तुतः जिसकी जिस क्षेत्र में अधिक रुचि एवं मानसिक स्थिरता हो उसे तदनुरूप कार्य करना चाहिए। पर किसी एक कार्य को मुख्य करके दूसरी क्रिया को गौण करना सर्वथा अनुचित है। जैसे कि स्कूल में अनेक विषय पढ़ाए जाते हैं, विद्यार्थी को जिस विषय में आगे बढ़ना हो या कोई कोर्स करना हो तो उस पर विशेष ध्यान देना ठीक है पर यदि उसी विषय को मुख्य करके शेष विषयों की पढ़ाई ही न की जाए तो चल सकता है? यदि नहीं तो फिर धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में यह कैसे मान्य हो सकता है ? शंका- भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमा पर साँप के फण क्यों होते हैं? क्या इनकी भी पूजा होती है? समाधान- भगवान पार्श्वनाथ जब दीक्षा लेने के बाद विचरण कर रहे थे उस समय धरणेन्द्र देव ने परमात्मा द्वारा कृत उपकारों का स्मरण कर प्रभु भक्ति
SR No.006260
Book TitleShanka Navi Chitta Dharie-Shanka, Samadhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy