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24... शंका नवि चित्त धरिये!
था। विक्रम की दशवीं-ग्यारहवीं शती तक नित्य स्नान एवं विलेपन नहीं होते थे। प्रतिष्ठा आदि प्रसंगों में भी उत्सव समाप्ति तक नित्य सर्वोपचारी भक्ति होने के उल्लेख मिलते हैं।
आचार्य पादलिप्तसूरि लिखित प्रतिष्ठा पद्धति के अनुसार प्रतिमाह एक के हिसाब से वर्षभर में बारह-स्नपन करने चाहिए तथा वर्ष की समाप्ति पर आठ दिन तक उत्सव पूर्वक विशेष पूजा करनी चाहिए।
श्री चन्द्रसूरि कृत प्रतिष्ठा पद्धति में भी यही वर्णन प्राप्त होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुसार प्रतिष्ठा सम्पन्न होने के पश्चात आठ दिनों तक अविछिन्न रूप से पूजा करनी चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि उसके बाद पूजा नित्य नहीं होती होगी।
उपर्युक्त वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि बारहवीं सदी तक नित्य पूजा का विधान नहीं था वरना आचार्य पादलिप्तसूरि आदि महीने में एक स्नान का उल्लेख नहीं करते। चौदहवीं शती तक के प्रतिष्ठा कल्पों में यही उल्लेख प्राप्त होते हैं। पन्द्रहवीं शती के प्रतिष्ठा कल्पों में "द्वादश मासानं स्नात्रं कृत्वा" का वर्णन प्राप्त होता है क्योंकि तब तक नित्य प्रक्षाल की रूढ़ परम्परा प्रविष्ट हो चुकी थी। वस्तुत: आगम प्रमाणों एवं मध्यकालीन प्रतिष्ठा विधियों से तो यही सिद्ध होता है कि उस समय तक नित्य प्रक्षाल नहीं होता
था।
शंका- शुभ भावों में हेतुभूत मानकर यदि जल-पुष्प आदि के अर्पण से होने वाली हिंसा स्वीकृत कर सकते हैं तो फिर बकरे आदि की बलि को भी स्वीकृत करना चाहिए क्योंकि वह भी शुभ भावों की उत्पत्ति में हेतभत है?
समाधान- जल पूजा, पुष्प पूजा आदि के स्वीकार का अर्थ हिंसा की स्वीकृति नहीं है। इन द्रव्यों को उपलब्ध एवं प्रयोग करने की जो शास्त्रीय रीति है उसमें हिंसा का परिमाण नहींवत होता है। जैसे कि वैद्य के द्वारा दिया हुआ जहर भी औषधि के रूप में जीवन प्रदायक संजीवनी बूटी का कार्य करता है, परन्तु उसी जहर की मात्रा यदि एक चम्मच से एक कटोरी कर दी जाए तो वह प्राण घातक बन जाता है।
इसी प्रकार जल-पुष्प आदि में रही हुई सामान्य हिंसा को मान्य करने से बकरे जैसे पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा मान्य नहीं हो जाती। दूसरा तथ्य यह हैं कि