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कैसे बचें विराधना से? ...73 हो तो अपवाद रूप में वहाँ भी माला गिन सकते हैं।
शंका- चल प्रतिमा की प्रक्षाल आदि क्रियाएँ मूल गंभारे के बाहर कर सकते हैं?
समाधान- चल प्रतिमाओं की प्रक्षाल, अंगलूंछणा पूजा आदि क्रियाएँ मूल गंभारे के बाहर पट्टा, चोकी आदि पर थाली में विराजमान करके करनी चाहिए। ऐसा करने से परमात्मा के प्रति विनय एवं बहुमान प्रकट होता है। मूल गंभारे में कई बार स्थान की संकीर्णता के कारण चल प्रतिमाओं को बार-बार उठाना पड़ता है जिससे मन्दिर सम्बन्धी अनेक आशातनाओं की संभावना रहती है। अत: बाहर मूल गंभारे के प्रक्षाल करना अधिक उचित है।
शंका- जूते-चप्पल पहनकर पूजा करने जा सकते हैं? ___समाधान- जैन धर्म जयणा प्रधान धर्म है। मन्दिर जाते समय श्रावक वर्ग को ईर्यासमिति का पालन करते हुए खुले पैर मन्दिर जाना चाहिए। इस विधान के पीछे कई आध्यात्मिक, मानसिक एवं शारीरिक हेतु जुड़े हुए हैं।
जीवों की जयणा रखते हए मन्दिर जाने से मन में विशुद्ध परिणामों का निर्माण होता है। जीवों के प्रति करूणा भाव होने से कर्म ग्रन्थियाँ क्षीण होती है। इससे जीव आध्यात्मिक उत्थान को प्राप्त करता है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार नंगे पैर चलने पर सहज रूप से सम्पूर्ण शरीर का एक्युप्रेशर हो जाता है, जिससे कई शारीरिक रोगों का भी उपशमन होता है। मिट्टी में रहे हुए खनिज पदार्थ (minerals) आदि का पोषण होता है। मन्दिर जाते समय जूते चप्पल आदि पहने हुए हो तो मानसिक रूप से भी एकाग्रता नहीं रहती। चप्पल नई हो तो बार-बार ध्यान उसकी तरफ जाता है और यदि वह खो जाए तो फिर आन्तरिक परिणाम गिर जाते हैं। कई बार तो बात हाथा-पाई तक पहुँच जाती है। कई लोग चप्पलों की सुरक्षा के लिए उन्हें मन्दिर और उपाश्रय के परिसर में भी ले जाते हैं। मानसिक हलचल के कारण जिनपूजा का यथोचित फल प्राप्त नहीं हो पाता। एक व्यक्ति को जूते-चप्पल पहनकर जाते हुए देख अन्य लोग भी उसका अनुकरण कर सकते हैं, इससे अनवस्था दोष लगता है। अत: पूजार्थियों के लिए किसी भी अपेक्षा से जूते-चप्पल पहनकर जाना उचित नहीं है। यदि किसी को शारीरिक कारण विशेष से पहनकर जाना भी पड़े तो अपना विवेक रखते हुए पूजा के लिए अलग जूते रखने चाहिए।