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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...33 13. कनकावली तप
__ कनक + आवली का अर्थ है स्वर्ण का हार। जिस प्रकार स्वर्णहार पहनने वाले के हृदय को सुशोभित करता है उसी प्रकार यह तप तपस्वियों के हृदय (आत्म कमल) को शोभायमान करता है। यह तप स्वर्ण मणियों द्वारा निर्मित्त आभूषण विशेष के आकार की कल्पना के अनुसार किया जाता है, इसलिए इसका नाम कनकावली तप है। इस तप की आराधना आत्मिक सुख की प्राप्ति एवं मोक्ष पद की उपलब्धि के प्रयोजन से की जाती है।
अन्तकृत्दशासूत्र (8/2) में इस तप की स्वतन्त्र चर्चा की गयी है। तदनुसार इस तपश्चर्या की आराधना आर्या चन्दना की शिष्या सुकाली ने की थी। यह तप मुनियों एवं श्रावकों दोनों के लिए करने योग्य है। - इसकी सामान्य विधि इस प्रकार है - विधि
तपसः कनकावल्याः, काहला दाडिमे अपि । लता च पदकं चान्त्य, लता दाडिम-काहले ।। एक द्वित्र्युपवासतः प्रगुणिते, संपूरिते काहले। तत्राष्टाष्टमितैश्च षष्ठकरणैः, संपादये दाडिमे ।। एकाद्यैः खलु षोडशान्तगणितैः, श्रेणी उभे युक्तितः । षष्ठस्तैः कनकावले किल, चतुस्त्रिंशन्मितो नायकः ।।
आचारदिनकर, पृ. 348 • इस तप में प्रथम उपवास कर पारणा करें, तत्पश्चात निरन्तर दो उपवास कर पारणा करें, फिर निरन्तर तीन उपवास कर पारणा करें। इस तरह एक काहलिका पूर्ण होती है। पारणा में एकाशना करें।
• तत्पश्चात निरन्तर आठ बेला करें, जिससे एक दाडिम पूर्ण होती है।
• उसके बाद एक उपवास पारणा करें, दो उपवास पारणा करें, तीन उपवास पारणा करें- इस प्रकार बढ़ते-बढ़ते सोलह उपवास कर पारणा करें (अर्थात यहाँ एक उपवास से लेकर सोलह उपवास तक बढ़ते हैं) ऐसा करने से हार की एक लता पूर्ण होती है।
• इसके पश्चात निरन्तर चौंतीस बेला (छ? तप) करें और बीच में एकाशना से पारणा करें। इतना तप करने से उस लता के नीचे का पदक सम्पूर्ण