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6...सज्जन तप प्रवेशिका गया है, क्योंकि ये तप इस समय दुःसाध्य हैं।
तदनन्तर 8वीं शती से 13वीं शती तक के ग्रन्थों में आगम का अनुसरण करते हुए अन्य अनेक तप निरूपित किये गये हैं, किन्तु वहाँ किसी तरह का विभागीकरण नहीं किया गया है। जबकि 14वीं शती (विधिमार्गप्रपा) एवं 15वीं शती (आचारदिनकर) के ग्रन्थों में तप संख्या की अधिकता के साथ-साथ उनका विभाजन भी प्राप्त होता है।
आचार्य जिनप्रभसूरि ने विधिमार्गप्रपा में उन्हीं तपों का विधि स्वरूप दिखलाया है जो गीतार्थ आचरित और आगम सम्मत हैं। उन्होंने गीतार्थ द्वारा अनाचरित तपों का मात्र नामोल्लेख किया है तथा अनाचरित होने से उनका स्वरूप दर्शाने में अपनी अरुचि प्रकट की है। आचार्य वर्धमानसूरि ने पूर्वाचार्यों की तुलना में सबसे अधिक तप-विधियों का उल्लेख किया है। उन्होंने अपना ध्यान न केवल तप संख्या की अभिवृद्धि की ओर दिया है अपितु उनका एक समुचित वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है।
जब हम विधिमार्गप्रपा और आचारदिनकर इन दोनों ग्रन्थों के वर्गीकरण की ओर ध्यान देते हैं तो किञ्चित विरोधाभास परिलक्षित होता है। जैसे कि विधिमार्गप्रपा में माणिक्यप्रस्तारिका नामक तप को गीतार्थ अनाचरित कहा गया है, किन्तु आचारदिनकर के कर्ता ने इसे गीतार्थ भाषित कहा है।
आचारदिनकर में श्रावक की ग्यारह प्रतिमा नामक तप को तीर्थङ्कर प्रज्ञप्त कहते हुए उसे अधुनाऽपि स्वीकार करने का उपदेश दिया गया है जबकि विधिमार्गप्रपा में प्रतिमा रूप श्रावक धर्म को व्युच्छिन्न हुआ, ऐसा माना गया है इसलिए उसकी विधि भी नहीं कही गयी है। आचारदिनकर में श्रावक प्रतिमाओं का सम्यक् वर्णन उपलब्ध है।
विधिमार्गप्रपा में तीर्थङ्कर उपदिष्ट एवं गीतार्थ स्वीकृत तपों का वर्णन युगपद् है। इससे यह स्पष्ट नहीं हो पाता है कि जिनप्रभसरि ने किन तपों को जिनेश्वर प्रणीत और किन तपों को गीतार्थ भाषित माना है जबकि आचारदिनकर में यह विभाजन सुन्दर ढंग से किया गया है।
यहाँ यह प्रश्न खड़ा हो सकता है कि आचार्य वर्धमानसूरि ने इन्द्रियजय, कषायजय, योगशुद्धि, धर्मचक्र आदि किञ्चित तपों को तीर्थङ्कर भाषित कहा है तो उनका उल्लेख आगम-साहित्य के पृष्ठों पर अवश्य होना चाहिए जबकि उन तपों के नाम से वहाँ कोई चर्चा दृष्टिगत नहीं होती, तो यह विरोधाभास कैसे?
इसका समाधान यह है कि तीर्थङ्करों ने जिन तपों का प्रयोग किया, वह सब