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स्वकथ्य
जैन संस्कृति का मूल तत्त्व तप है। जैन साधना का प्राण तत्त्व तप है। जैन वाङ्मय का मुख्य सत्त्व तप है। जिस प्रकार पुष्प की हर पंखुड़ी में खुशबू समाहित है, मिश्री के कण-कण में मिठास है, तिल के हर दाने में तेल है वैसे ही जैन धर्म के प्रत्येक विधान में तप समाहित है। इसी कारण सन्त साधकों ने श्रमण संस्कृति को तप प्रधान संस्कृति के नाम से उपमित किया है।
तप दो वर्णों का अत्यंत लघु शब्द है, किन्तु इसकी शक्ति अचिन्त्य है। विभिन्न दृष्टियों से तप के अनेक अर्थ किए गए हैं। संस्कृत व्युत्पत्ति के अनुसार 'तप्यतेऽनेनेति तप:' अर्थात जिसके द्वारा तपा जाता है अथवा शरीर को तपाया जाता है वह तप है। आचार्य अभयदेवसूरि के अनुसार जिस साधना के द्वारा शरीरजन्य रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा और शुक्र ये धातुएँ और अशुभ कर्म क्षीण होते हैं, सूख जाते हैं, जल जाते हैं, वह तप है। जिस प्रकार सूर्य के ताप से बाह्य मल का शोधन होता है, अग्नि के ताप से स्वर्ण का शोधन होता है उसी प्रकार तप के द्वारा जीव के अन्तर मलों का शोधन होता है।
जैनाचार्यों के अनुसार मुख्य रूप से इच्छाओं का निरोध करना तप है। तप का क्षेत्र इतना व्यापक है कि स्वाध्याय, सेवा, भक्ति, अनशन, प्रायश्चित्त, कायक्लेश, इन्द्रियदमन, ध्यान, विनय आदि समस्त आध्यात्मिक क्रियाओं का समावेश इसमें हो जाता है।
वस्तुत: तप जीवन की ऊर्जा है, आत्मा का निजी गुण है, साधना की यथार्थ पूर्णता है, आरोग्यता की औषधि है, सद्भावनाओं का दीपक है, श्रेष्ठ विचारों की ज्योति है एवं सम्यक आचरण की मिसाल है। सार रूप में कहें तो तप ही श्रेष्ठ जीवन की नींव है।
तप के मुख्य दो प्रकार हैं- 1. बाह्य तप और 2 आभ्यंतर तप। बाह्य तप के द्वारा शरीर को तपाया जाता है एवं आभ्यंतर तप के द्वारा स्वाभाविक आत्म गुणों को प्रकट किया जाता है। कई लोग मात्र देह पीड़न को ही तप मानते हैं। उनके अनुसार शरीर को कष्ट देना ही तप है। परन्तु यदि जैन शास्त्रों के अनुसार