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परिशिष्ट-I...251
लोगस्स लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे। अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसंपि केवली।।1।। उसभ मजिअं च वंदे, संभव मभिनंदणं च सुमइं च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वन्दे।।2।। सुविहिं च पुष्कदंतं, सीअल सिज्जंस वासुपुज्जं च। विमल मणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि।।3।। कुंथु अरं च मल्लि वंदे, मुणिसुव्वयं नमि जिणं चं। वंदामि रिट्ठनेमिं, पासं तह वद्धमाणं च।।4।। एवं मए अभिथुआ, विहुय रयमला पहीणजरमरणा। चउवीसंपि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु।।5।। कित्तिय वंदिय महिया, जे अ लोगस्स उत्तमा सिद्धा, आरुग्ग बोहिलाभ, समाहिवर मुत्तमं दितु।।6।। चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सागरवर गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु।।7।।
सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं करेमि काउस्सग्ग।।1।। वंदण वत्तिआए, पूअण वत्तिआए, सक्कार वत्तिआए, सम्माण वत्तिआए, बोहिलाभ वत्तिआए, निरुवग्ग वत्तिआए।।1।। सद्धाए, मेहाए, धीईए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्डमाणीए खामि काउस्सग्गं।।3।।
अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएणं, जंभाइएणं, उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलीए पित्तमुच्छाए।।1।। सुहुमेहिं अंग संचालेहिं, सुहुमेहिं खेलसंचालहिं, सुहुमेहिं दिट्ठसंचालेहि।।2।। एवमाइएहिं आगारेहिं, अभग्गो अविराहिओ, हुज्ज मे काउस्सग्गो।।3।। जाव अरिहंताणं, भगवंताणं, णमुक्कारेणं न पारेमि।।4।। ताव कायं ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं, अप्पाणं वोसिरामि।।5।।
(एक नवकार का कायोत्सर्ग करें। फिर ‘णमो अरिहंताणं' कहकर दूसरी स्तुति कहें)
त्रैकालिक भावे, तीर्थंकर भगवान भवसागर तारण, कारण रूप महान्। होते हैं होंगे और हुये पद बीस सेवा से मेवा, वंदूं जिन जगदीश।।2।।
__पुक्खरवरदीवड्डे पुक्खर वरदी वड्डे, धायइ संडे अ जंबूदीवे । भरहे रवय विदेहे,