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________________ जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...159 महोत्सव के अवसर पर दीपोत्सव मनाया जिससे वह रात्रि प्रकाश पूर्ण बन गयी इसीलिए इसका नाम निर्वाणदीप है तथा लोकव्यवहार में यह दिन दीपावली अथवा दीवाली के नाम से प्रसिद्ध है। __ दूसरा तथ्य है कि यह दिन निर्वाण मार्ग का दर्शन करवाने हेतु दीपक के समान होने से भी यह तप 'निर्वाण दीपक' के नाम से विख्यात है। दूसरे शब्दों में निर्वाण मार्ग दिखाने में दीपक के सदृश होने से इस तप को निर्वाण दीप तप कहते हैं। यह श्रावकों के करने योग्य आगाढ़ तप है। इस तप के करने से मोक्षमार्ग की प्राप्ति होती है। आचारदिनकर में इसकी निम्न विधि उल्लिखित है - वर्ष त्रयं दीपमाला, पूर्व मुख्ये दिन-द्वये। उपवासद्वयं कार्य, दीप-प्रस्तार पूर्वकम्।। आचारदिनकर, पृ. 370 यह तप करने हेतु कार्तिक वदि चतुर्दशी और अमावस्या में निरन्तर दो उपवास (बेला) करें। इन दोनों दिन महावीरस्वामी की प्रतिमा के आगे अखण्ड अक्षत चढ़ाएं एवं रात्रि में अखण्ड घी का दीपक रखें। इस प्रकार तीन वर्ष तक करने पर यह तप पूर्ण होता है। उद्यापन - इस तप के तीसरे वर्ष के अन्त में भगवान महावीर की बृहत्स्नात्र पूजा रचायें। उनके समक्ष एक हजार घी के दीपक रखें। उस दिन संघ वात्सल्य एवं साधर्मी भक्ति करें। • वर्तमान सामाचारी के अनुसार इस तप के दिनों में निम्न जाप आदि करने चाहिए। जाप 1. चतुर्दशी की रात्रि में - श्री महावीरस्वामी सर्वज्ञाय नमः 2. अमावस्या की अर्धरात्रि में - श्री महावीरस्वामी पारंगताय नमः 3. अमावस्या की अन्तिम रात्रि में - श्री गौतमस्वामी सर्वज्ञाय नमः साथिया खमा. कायो. 12 12 माला 12 20
SR No.006259
Book TitleSajjan Tap Praveshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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