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126...सज्जन तप प्रवेशिका
उद्यापन – इस तप के बहुमानार्थ बृहत्स्नात्र पूजा करें, आठ पंखुड़ी वाले स्वर्ण के नौ कमल बनवाकर प्रभु के समक्ष रखें, साधर्मीवात्सल्य एवं संघपूजा करें।
• पूर्व परम्परानुसार इस तप के दिनों में अरिहन्त पद की विशेष आराधना करेंजाप
साथिया खमा. कायो. माला श्री पद्मोत्तर तपसे नम: 12 12 12 20 26. समवसरण तप
जहाँ प्रत्येक जीव को समान रूप से आश्रय प्राप्त होता है उसे समवसरण कहते हैं। यह एक अद्भुत संरचना है जो देवताओं द्वारा की जाती है। जैन मान्यता के अनुसार जब किसी तीर्थङ्कर पुरुष को केवलज्ञान होता है उस समय देवों द्वारा यह निर्मित किया जाता है। इस समवसरण में रजत, स्वर्ण एवं रत्नों के तीन गढ़ होते हैं। तीसरे गढ़ पर चारों दिशाओं में एक-एक स्वर्ण सिंहासन होता है। इन चारों के बीचो-बीच तीर्थङ्कर के शरीर से बारह गुणा ऊंचा अशोक वक्ष होता है। प्रत्येक सिंहासन पर मोतियों से अलंकृत तीन-तीन छत्र होते हैं। प्रत्येक सिंहासन के आगे एक-एक रत्नमय पाद-पीठ होता है उस पर प्रभु अपने चरण न्यास करते हैं। सिंहासन के आगे चारों दिशाओं में धर्मचक्र तथा छोटीछोटी घण्टियों से सुशोभित महाध्वजा होती है। पूर्व दिशा के ध्वज को धर्मध्वज, दक्षिण ध्वज को मानध्वज, पश्चिम ध्वज को गजध्वज तथा उत्तर ध्वज को सिंहध्वज कहते हैं।
पूर्व दिशा की ओर निर्मित सिंहासन पर साक्षात तीर्थङ्कर पूर्वाभिमुख होकर बैठते हैं, शेष तीन सिंहासनों पर उस परमात्मा के प्रतिबिम्बों को स्थापित करते हैं। यह समवसरण मुख्यत: देशना के लिए रचा जाता है। तीर्थङ्कर प्रभु इस आसन पर बैठकर ही उपदेश देते हैं। ___ यह तप समवसरण की आराधना एवं तद्प स्थिति सम्प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। इस तप के करने से तीर्थङ्कर भगवान के साक्षात दर्शन होते हैं। समवसरण में चतुर्मुख परमात्मा होने से यह तप चार परिपाटियों द्वारा किया जाता है। यह तप गृहस्थ एवं मुनि सर्व प्रकार के साधकों के लिए आवश्यक है।