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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप- विधियाँ... 107
यह तप शुभ मास की शुक्ल पक्षीय द्वादशी से प्रारम्भ कर बारह मास तक शुक्ल द्वादशियों में एकाशना आदि के द्वारा किया जाता है।
इस विधि के मूल पाठ में किसी भी तप विशेष का उल्लेख नहीं है। वह पूर्व कथित 'ग्यारह अंग तप' के मूल पाठ से ग्रहण करना चाहिए क्योंकि ये दोनों ही द्वादशांग श्रुत से सम्बन्ध रखते हैं। वहाँ एकासन शब्द में आगत 'आदि' शब्द से नीवि, आयंबिल अथवा उपवास का अभिप्राय है । यह तप बारह महीनों (एक वर्ष) में कुल 12 उपवास द्वारा पूर्ण होता है।
उद्यापन इस तप को महिमा मण्डित करने के भाव से तप की समाप्ति पर ज्ञान पंचमी तप के अनुसार उत्सव - महोत्सव करें। विशेष इतना है कि ज्ञानादि से सम्बन्धित सर्व सामग्री बारह - बारह चढ़ायें।
• इस तप के दिन द्वादश श्रुत का जाप करते हुए अरिहन्त पद की आराधना करें
साथिया
खमा.
12
कायो.
12
माला
20
जाप
दुवालसंगीणं नमः 12 14. चतुर्दशपूर्व तप
यहाँ पूर्व शब्द अथाह ज्ञान का सूचक है। जैन शास्त्रों के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञान चौदह पूर्वों में समाहित हो जाता है। 14 पूर्वों के अतिरिक्त कोई ज्ञान नहीं है। तीर्थङ्कर, गणधर, पूर्वाचार्य आदि चौदह पूर्व के धारक होते हैं यानि उनमें समग्र ज्ञान का स्रोत प्रवाहित होता रहता है। द्रव्य दृष्टि से प्रत्येक आत्मा में अनन्त ज्ञान है, किन्तु पर्याय दृष्टि से किन्हीं जीवों में वह किञ्चित प्रकट है, किन्हीं में सर्वथा अप्रकट है तो कुछ में सर्वथा प्रकट है। जिनमें ज्ञान का सर्वांश प्रकट हो जाता है, वह चौदह पूर्व का धारक होता है । एक पूर्व के समकक्ष ज्ञान की तुलना इस प्रकार की गयी है
एक हाथी परिमाण लम्बा, चौड़ा एवं गहरा कुआँ खुदवाकर उसमें सूखी स्याही ठूंस-ठूंस कर भर दी जाये, फिर स्याही को द्रवित कर उससे आगम लिखना प्रारम्भ करें, जितने ग्रन्थ लिखे जा सकें उतना ज्ञान एक पूर्वधर को होता है। आगे इसी तरह चौदह तक दुगुनी - दुगुनी संख्या बढ़ाते हुए चौदह पूर्वो