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96...सज्जन तप प्रवेशिका
साधक बाह्य सम्पदा के साथ-साथ आत्म-सम्पदा का भी स्वामी बन जाता है अर्थात सिद्धावस्था को प्रकट कर लेता है। यह अनागाढ़ तप साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए करने योग्य है। यह तप निम्न दो रीतियों से किया जाता है। प्रथम रीति
बत्तीसं आयामं, . एगंतरपारणेण सुविसुद्धो । तह परम भूसणो खलु, भूसणदाणप्पहाणो य ।। पंचाशक प्रकरण- 19/33, प्रवचनसारोद्धार- 271/1546
विधिमार्गप्रपा- पृ. 25, आचारदिनकर- पृ. 344 उपरोक्त ग्रन्थों के निर्देशानुसार इस तप में बत्तीस आयंबिल एकान्तर एकाशन के पारणे पूर्वक करें अर्थात एक दिन आयंबिल, दूसरे दिन एकासना इस प्रकार बत्तीस आयंबिल और बत्तीस एकाशना करने पर चौसठ दिनों में यह तप पूर्ण होता है। __ दूसरी रीति - जैनप्रबोधसंग्रह के अनुसार यह तप निरन्तर बत्तीस आयंबिल करके बत्तीस दिनों में भी पूर्ण किया जाता है।
उद्यापन - इस तप के उद्यापन में जिनेश्वर परमात्मा की बृहत्स्नात्र पूजा करवायें, मूलनायक प्रभु को स्वर्णमय रत्नजटित मुकुट, कुण्डल, हार आदि सभी आभूषण चढ़ायें तथा बत्तीस-बत्तीस की संख्या में पकवान एवं फलादि चढ़ाएं।
• प्रचलित विधि के अनुसार परमभूषण-तप की विशिष्ट सफलता हेतु अरिहन्त पद की आराधना अवश्य करें
जाप साथिया खमा. कायो. माला ॐ नमो अरिहंताणं 12 12 12 20 9. ऊनोदरिका तप
ऊन+उदर इन दो शब्दों के योग से निष्पन्न ऊनोदरी शब्द का अर्थ हैऊन = कम, उदर = पेट अर्थात नियत प्रमाण से कम भोजन करना अथवा उदर में जितनी भूख हो उससे कम भोजन करना ऊनोदरी तप कहलाता है।
इस तप के प्रभाव से पाप कर्मों की विशेष निर्जरा होती है। मानसिक, वाचिक एवं कायिक इन त्रिविध दृष्टियों से इस तप का अत्यधिक मूल्य है। यह तप साधु एवं गृहस्थ दोनों के लिए अवश्य करणीय है।