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जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित तप-विधियाँ...59 हैं - 1. सचित्त – जीवित प्राणियों के शब्द 2. अचित्त – यान्त्रिक साधनों की ध्वनियाँ 3. मिश्र - गीत गाता हुआ, वाद्यादि बजाता हुआ मनुष्य।
सांसारिक मनुष्य ऐन्द्रिक विषयों में राग-द्वेष एवं सुख-दुःख की कल्पना करता है। यह सब इन्द्रिय आसक्ति की वजह से होता है। यह तप इन्द्रिय विषयों पर विजय प्राप्त करने के लिए करते हैं। इस तप के फल से सभी इन्द्रियों की अशुभ प्रवृत्तियाँ मन्द अथवा समाप्त हो जाती हैं। यह तप साधु एवं श्रावक दोनों के करने योग्य है और वर्तमान परम्परा में सामान्यतया प्रचलित भी है। विधि
पूर्वार्धमेकभक्तं च, विरसाम्ले उपोषितं । प्रत्येकमिन्द्रियजयः,
पंचविंशतिवासरै ।।
__आचारदिनकर, पृ. 337 इस तप में क्रमशः पुरिमड्ड, एकाशन, नीवि, आयंबिल और उपवास, ऐसा पाँच दिन तक करने से इन्द्रिय जय तप की एक परिपाटी होती है। इस तरह पाँचों इन्द्रियों पर नियन्त्रण पाने हेतु पाँच परिपाटियाँ की जाती है। इस प्रकार 5x5 = 25 दिन में यह तप पूर्ण होता है।
• प्रवचनसारोद्धार, पंचाशकप्रकरण, विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थों में भी इस तप की यथावत विवेचना की गयी है।
उद्यापन – इस तप के पूर्ण होने पर जिनेश्वर परमात्मा के आगे विभिन्न प्रकार के पच्चीस-पच्चीस पकवान, फल आदि चढ़ाए और उतनी ही संख्या में पकवानों का साधुओं को दान दें। ज्ञान की भक्ति, साधर्मी-वात्सल्य एवं संघ पूजा करें।
. प्रचलित विधि के अनुसार इन्द्रियजय तप के दिनों में परिपाटी के अनुरूप निम्न आराधना अवश्य करें अथवा पांचों परिपाटियों में 'इन्द्रियजयाय नम:' की 20 माला तथा साथिया आदि पाँच-पाँच करें।
___जाप साथिया खमासमण कायो. माला | पहली परिपाटी | स्पर्शेन्द्रिय जय तपसे नमः | 8 दूसरी परिपाटी | रसनेन्द्रिय जय तपसे नमः | 5 तीसरी परिपाटी | घ्राणेन्द्रिय जय तपसे नमः चौथी परिपाटी | चक्षुरिन्द्रिय जय तपसे नमः | पांचवीं परिपाटी | श्रोत्रेन्द्रिय जय तपसे नमः
क्रम
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