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आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन .33
और मध्यमा ये तीनों अंगुलियाँ प्रकृति के तीन गुणों की प्रतीक हैं। 1. तमस् - जड़ता, अन्धकार, अज्ञान आदि; 2. रजस् - सक्रियता, गतिशीलता, प्रसन्नता आदि; 3. सत्त्व ज्ञान, शुद्धि, जागृति, आत्मानुभूति आदि। आत्म तत्त्व की उच्च अवस्था को प्राप्त करने के लिए इन तीनों अवस्थाओं को एक के बाद एक बार करना पड़ता है। इस तरह मुद्रा प्रयोग द्वारा अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर प्रवृत्ति होती है ।
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मुड़ी हुई तर्जनी अंगुली व्यक्तिगत जागृत चेतना का प्रतीक है। तदनुसार वैयक्तिक चेतना का विकास होता है । अंगूठा परमात्म शक्ति को नमन करने का प्रतीक है इससे साधक व्यापक शक्ति (परमात्म सत्ता ) के निकट पहुँचता है। तर्जनी का अंगूठे से स्पर्श होना इंगित करता है कि भले ही आत्मा और परमात्मा तत्त्व पृथक्-पृथक् दिखाई देते हों, वस्तुत: जीवात्मा (व्यष्टि) एवं परमात्मा (समष्टि) रूप होने से एक और अभिन्न है । इस तरह यह मुद्रा आत्मसत्ता के चरमोत्कर्ष (परमात्मसत्ता) का स्पर्श करवाती है।
• इस मुद्रा के अभ्यास से विशिष्ट शक्ति केन्द्र जागृत होकर अध्याय-1 अनुसार उनके अनेक सुप्रभाव होते हैं
चक्र- अनाहत एवं आज्ञा चक्र तत्त्व - वायु एवं आकाश तत्त्व ग्रन्थि - थायमस एवं पीयूष ग्रन्थि केन्द्र - आनंद एवं दर्शन केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- हृदय, फेफड़ें, भुजाएँ, रक्त संचार प्रणाली, निचला मस्तिष्क, स्नायु
तंत्र।
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एक्युप्रेशर चिकित्सकों ने अंगुलियों के अग्रभाग को मस्तिष्क का स्थान माना है। उनके मतानुसार उस स्थान पर दबाव पड़ने से सिर दर्द दूर होता है और मस्तिष्क क्षमता विकसित होती है । अंगुष्ठ के अग्रभाग (ऊपरी सिरे के निकटवर्ती स्थान) को पिट्यूटरी एवं पिनियल केन्द्र कहा गया है। ये ग्रन्थियाँ शारीरिक स्वस्थता और वैयक्तिक विकास में अहम् भूमिका निभाती हैं। इस भाग पर दबाव पड़ने से मैत्री, करुणा, ऋजुता, दया, स्थैर्यता आदि निर्मल भावों का उद्भव होता है। आत्म ध्यान या समाधि में तचिद्रूप होने के लिए इस मुद्रा को आवश्यक अंग के रूप में स्वीकारा गया है। गीता में वर्णित एक श्लोक से सिद्ध होता है कि महाभारत युद्ध के समय श्री कृष्ण ने कर्मयोगी अर्जुन को ब्रह्म विद्या गीता का उपदेश ज्ञान मुद्रा में दिया था। वह श्लोक निम्न है -