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आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन ... 101
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अग्नि तत्त्व का जल तत्त्व से संस्पर्श होने पर पित्त सम्बन्धी कठिनाईयाँ एवं रोग विश्राम ले लेते हैं। पित्त प्रकृति वालों के लिए यह मुद्रा अत्यन्त लाभदायी है।
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• इस मुद्रा से किडनी या मूत्र सम्बन्धी दोषों का भी परिहार होता है । एक्यूप्रेशर के अनुसार अंगूठे द्वारा कनिष्ठिका पर दाब पड़ने से शक्ति का संतुलन होता है, मूर्च्छा छूटती है, बेहोशी दूर होती है। आकस्मिक दुर्घटना के वक्त चमत्कारी फायदे दिखाती हैं।
25. 3. पृथ्वी सुरभि मुद्रा
दोनों हाथों की अनामिका अंगुलियाँ पृथ्वी तत्त्व का प्रतिनिधि है। इस मुद्रा में द्वयांगुष्ठों (अग्नि तत्त्व) को अनामिका के मूल भाग से संस्पर्शित किया जाता है अत: इसे पृथ्वी सुरभि मुद्रा कहते हैं ।
विधि
पूर्व निर्देश के अनुसार अनुकूल स्थिति में बैठ जायें। तदनन्तर पूर्ववत सुरभि मुद्रा बनाकर दोनों अंगूठों के अग्रभाग को दोनों अनामिका अंगुलियों के मूल भाग पर लगाने से पृथ्वी सुरभि मुद्रा बनती है।
पृथ्वी सुरभि मुद्रा