________________
88... आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे? रूप से प्रतीत होती है। प्राचीन काल में विद्यादान की परिपाटी मौखिक थी क्योंकि गुरु एवं शिष्य का क्षयोपशम जबर्दस्त होता था। धीरे-धीरे काल के दुष्प्रभाव से स्मृति मन्द होने लगी तब ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है' इस न्यायोक्ति के अनुसार कंठाग्र विद्या को लिपिबद्ध करने की परम्परा का सूत्रपात हुआ। बुद्धिबल से नये-नये साधनों को अस्तित्व में लाने का प्रयत्न किया गया उनमें पुस्तक जैसे साधन का भी आविर्भाव हुआ। स्पष्ट है कि इस काल में ज्ञानार्जन का प्रमुख साधन पुस्तक है। ___ यहाँ पुस्तक मुद्रा का प्रयोग सद्ज्ञान संवर्द्धन के उद्देश्य से किया जाता है। विधि __इस मुद्रा की पूर्णता हेतु सुखासन या वज्रासन में बैठें। तत्पश्चात दोनों हाथों की अंगुलियों के अग्रभागों को अंगूठे के नीचे के भाग (शुक्र पर्वत) पर इस तरह रखें कि तर्जनी का अग्रभाग अंगूठे के मूल भाग को स्पर्श कर सकें, शेष तीनों अंगुलियाँ एक दूसरे से सटी हुई तर्जनी के निकट रहें और अंगूठा तर्जनी के मुड़े हुए भाग पर रह सके, इसे पुस्तक मुद्रा कहते हैं।20।
निर्देश- 1. पूर्वनिर्दिष्ट किसी भी आसन में पुस्तक मुद्रा कर सकते हैं। 2. यह प्रयोग प्रारम्भिक अवस्था से ही किसी भी समय 48 मिनट तक का किया जा सकता है। सुपरिणाम
• शारीरिक स्तर पर इस मुद्रा में अंगुलियों के अग्रभाग हथेली पर दबने से हथेली के उस भाग पर धड़कन शुरू होती है, वह अंगुलियों में भी महसूस होती है। इससे हाथ के सभी बिन्दु सक्रिय एवं शक्तिवर्द्धक बनते हैं।
• बौद्धिक स्तर पर इस मुद्रा की मदद से मस्तिष्क और ज्ञानतंतु के सभी मुख्य बिन्दु प्रभावित होते हैं जिससे मस्तिष्क के सूक्ष्म कोष क्रियावंत हो उठते हैं। परिणामतः चित्त की एकाग्रता सधती है तथा ज्ञानार्जन की क्षमता का विकास होता है।
• विद्यार्थियों के लिए यह मुद्रा अति उपयोगी है, क्योंकि इसके प्रभाव से वे एकाग्रचित्त होकर अध्ययन में जुटे रह सकते हैं।
• कोई भी पुस्तक जल्दी से समझ न आ रही हो तो पुस्तक मुद्रा करने के पश्चात उसे तुरंत समझ आ सकता है।