________________
आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन 73
निर्देश - इस मुद्रा को जलोदर रोग के समय ही प्रयुक्त करें। जब तक बीमारी दूर न हो प्रतिदिन 10 से 15 मिनट तक ही करें। इसका असर धीरे-धीरे होता है।
सुपरिणाम
इस मुद्रा के सहयोग से शरीर में जलीय तत्त्व के बढ़ने से जो बीमारियाँ होती हैं वे उपशान्त हो जाती है।
• शरीर के किसी भी अंग-प्रत्यंग में सूजन हो तो दूर हो जाती है। फाईलेरिया - एलीफन्टायसीस (हाथीपगा) और पेट में पानी भर गया हो तो इससे आराम मिलता है।
•
एक्युप्रेशर पद्धति के अनुसार यह मुद्रा पक्वाशय, छोटी आँत, कंधे के दर्द आदि में राहत देती है। पाचन तंत्र को सशक्त कर तत्सम्बन्धी विकारों को दूर करती है।
14. शंख मुद्रा
शम् + ख के संयोग से शंख शब्द की उत्पत्ति हुई है। 'शम' धातु कल्याणसूचक है और 'ख' शब्द आकाशवाची है। इसका स्पष्टार्थ है कि जो सकल ब्रह्माण्ड में कल्याण और मंगल को उत्पन्न करता है वह शंख है। शंख शब्द की व्युत्पत्ति भी इसी अर्थ को सूचित करती है जैसे- 'ख' कल्याण खनति जनत्पति इति शंखः' अर्थात कल्याण को उत्पन्न करने वाला शंख कहलाता है।
भारतीय परम्परा में शंख को मांगलिक वस्तु माना गया है। इतना ही नहीं, सभी धर्म स्थानों में भी इसे बहुत महत्त्व दिया गया है। जैन आम्नाय में शंख का प्रयोग अरिहंत परमात्मा की पूजोपासना के अन्तर्गत होता है। इसी के साथ प्रतिष्ठा, दीक्षा, व्रतधारण, प्रतिमा प्रवेश, रथयात्रा, पदस्थापना आदि मांगलिक प्रसंगों पर भी शंखनाद किया जाता है। इस ध्वनि के माध्यम से मांगलिक कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हुआ ऐसा उपस्थित जन समुदाय को सूचित किया जाता है। इतर परम्पराओं में अनेक देवी-देवता जैसे विष्णु, लक्ष्मी, शंकर इत्यादि के चित्रों में इन्हें एक हाथ में शंख पकड़े हुए या उनको बजाते हुए दर्शाया गया है। जैसा कि भगवद्गीता के प्रथम अध्याय में उल्लेख आता है कि युद्ध प्रारंभ होने के समय कृष्ण और अर्जुन ने अपने - अपने शंख बजाये । प्राचीन यूरोपियन