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आधुनिक चिकित्सा पद्धति में प्रचलित मुद्राओं का प्रासंगिक विवेचन ...69
निर्देश - 1. इस मुद्रा के लिए सुखासन, उत्कटासन एवं उपासना योग्य सभी आसन उत्तम हैं। इनमें से किसी एक आसन का चयन कर नित्यप्रति उसी आसन का उपयोग करें।
2. इस मुद्रा को प्रारम्भ में 8-10 मिनट करें। फिर धीरे - धीरे 48 मिनट तक का अभ्यास बढ़ाया जाये। सभी मुद्राओं में 48 मिनट की अवधि का जो उल्लेख है वह भावधारा की अपेक्षा से है । कोई भी साधक एक समान भावों में 48 मिनट से अधिक नहीं रह सकता है।
3. मृगी मुद्रा यथानुकूलता किसी भी समय की जा सकती है। 4. मुद्रा काल में स्वयं की भावधारा को विकृत या आवेग पूर्ण न होने दें, अन्यथा उस स्थिति में ताप की मात्रा बढ़ सकती है।
सुपरिणाम
इस मुद्रा में हाथों का आकार मृग जैसा बनता है इसलिए इसे मृगी मुद्रा कहते हैं। मृगी मुद्रा करने से निम्न परिणाम पाये जाते हैं
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• मृगी के समान सरलता, सहजता एवं सहिष्णुता गुण का प्रादुर्भाव होता है। भगवान महावीर ने उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है- " सोही उज्जूय भूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई" अर्थात ऋजुभूत (सरल) व्यक्ति की ही शुद्धि होती है और सरल हृदय में ही धर्म स्थिर रहता है, टिका रहता है। आशय है कि मृगी मुद्रा धर्म करने का अधिकार प्राप्त होता है।
• ऋजु परिणामों से इष्ट देवी- देवता भी प्रसन्न होते हैं।
• ऋजुता वृत्ति से अहंकार भी नष्ट होता है और व्यक्ति नम्र होकर भगवद् उपासना में लीन हो जाता है।
• ऋजुगुण से भावधारा सात्त्विक बनती है और चित्त की स्थिरता बढ़ती है परिणामतः अध्यात्म दिशा में अग्रसर होता है । यह मुद्रा मृगी रोग के निवारण में भी सहयोग करती है।
• यह मुद्रा निम्न शक्ति केन्द्रों की विकृतियों का शमन कर एक स्वस्थ जीवन प्रदान करती है
चक्र - सहस्रार, आज्ञा एवं विशुद्धि चक्र तत्त्व- आकाश एवं वायु तत्त्व ग्रन्थि - पिनियल, पीयूष, थायरॉइड एवं पैराथायरॉइड ग्रन्थि केन्द्र - ज्योति, दर्शन, एवं विशुद्धि केन्द्र विशेष प्रभावित अंग - मस्तिष्क, आँख, स्नायुतंत्र,