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68... आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे?
भारतीय परम्परा में हरिण को सात्त्विक, निश्छल एवं ऋजु परिणामी माना गया है। इसे शाकाहारी प्राणियों में श्रेष्ठ कहा जाता है। मृग की छाल पवित्र मानी गई है, अत: ऋषि-महर्षि लोग उसे अपने आसन के रूप में उपयोग करते हैं। मृग की आँखें सौन्दर्य का प्रतीक है, जिस नारी के नेत्र मृग के समान होते हैं उसे कवियों ने 'मृगनयनी' का सम्बोधन दिया है। संस्कृत काव्यों में इस सम्बन्ध में कई वृत्तान्त प्राप्त होते हैं जैसे मृग भोला प्राणी है, ऋषियों के कुटी आंगनं में छलांग लगाते हुए घूमते रहते हैं, झुण्ड के झुण्ड जलकुण्ड के समीप खड़े रहते हैं इत्यादि। मृगी मुद्रा का मुख्य प्रयोजन जीवन व्यवहार में सात्त्विकता, मन: परिणामों में ऋजुता एवं वाणी वर्तन में निश्छलता का अभ्युदय है।
हम जानते हैं कि मृग नाभि में अत्यन्त सुगन्धित कस्तूरी रहती है वह उस सुगन्ध की प्रतिसमय अनुभूति करता है लेकिन उसे इस बात की समझ नहीं होती कि वह सुगन्ध उसके स्वयं के निकट है। उसे पाने के लिए इत्र-तत्र घूमता रहता है, परेशान होता रहता है।
हम पशु की अपेक्षा अधिक समझदार एवं ज्ञान शक्ति सम्पन्न हैं। उपरान्त हमारी स्थिति भी मृगवत अथवा मृग से बदतर है। जिस सुख की चाह में हम घूम रहे हैं, भटक रहे हैं, परेशान हो रहे है वह तो हमारे स्वयं के विशुद्ध स्वभाव में है, निर्मल आत्म दशा में है किन्तु हम उन सुखों को मकान में, परिवार में, पत्नि में, बच्चों में, धन-वैभव में, खाने-पीने में, ऐश-आराम में ढूँढ रहे हैं और इस तरह की मिथ्या प्रवृत्ति से आत्म प्रदेशों पर दुष्कर्मों की परत चढ़ाते जा रहे हैं। इस मुद्रा से स्वयं की ओर झांकने एवं स्व शक्तियों को देखने की सम्यक दृष्टि प्राप्त होती है। कुछ विद्वानों के मत से यह मुद्रा यौगिक परम्परा में अधिक प्रयुक्त होती है साथ ही यह मुद्रा शान्ति और पौष्टिक जरूरतों को पूर्ण करने हेतु की जाती है। विधि
इस मुद्रा की पूर्ण उपलब्धि हेतु उपासना योग्य किसी भी आसन में बैठ जायें। तदनन्तर मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को एक-दूसरे से स्पर्शित करते हुए निकट रखें। फिर अंगूठे के अग्रभाग को दोनों अंगुलियों के मध्यभाग अथवा प्रथम पौर पर हल्का दबाव देते हुए रखें तथा कनिष्ठिका और तर्जनी को सीधा रखने पर मृगी मुद्रा बनती है।12