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• आधुनिक चिकित्सा में मुद्रा प्रयोग क्यों, कब और कैसे?
रोग), सर्वाईकल स्पोंडिलाइसीस, घुटनों के दर्द, वायुशूल आदि अनेक रोगों का निवारण होता है। कुपित वायु प्रशान्त होती है।
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गर्दन में बायीं ओर वातजन्य पीड़ा हो तो दाहिने हाथ से, दाहिनी ओर तकलीफ हों तो बायें हाथ से तथा पूरी गर्दन में दर्द हो तो दोनों हाथ से वायु मुद्रा करने पर राहत मिलती है।
• भोजन करने के पश्चात बेचैनी या गैस की तकलीफ हो तब तुरन्त वज्रासन में बैठकर यह मुद्रा करने से आराम मिलता है ।
• वायु तत्त्व का असंतुलन हृदय रोग को भी जन्म देता है, कई बार प्राणघातक कष्ट भी आ जाते हैं इसलिए प्रतिदिन थोड़ी देर ही सही इस मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए।
• ऋतु परिवर्तन के समय तो इस मुद्रा को अवश्य साधना चाहिए ताकि प्रकृति परिवर्तन से वायु तत्त्व असंतुलित न हो ।
• इस मुद्रा का सबसे अच्छा गुण यह है कि इसे अन्य उपचारों के साथ भी किया जा सकता है ।
• अन्य पहलुओं से विमर्श किया जाए तो इस प्रयोग से चंचल वृत्तियाँ शान्त एवं स्थिर होती है। तदनुसार प्राण सुषुम्ना में प्रवाहित होने लगता है ।
• इस मुद्रा के द्वारा निम्न शक्ति केन्द्रों के सक्रिय अवस्था के सभी सुफल प्राप्त होते हैं
चक्र- स्वाधिष्ठान एवं अनाहत चक्र तत्त्व- जल एवं वायु तत्त्व ग्रन्थि - प्रजनन एवं थायमस ग्रन्थि केन्द्र- स्वास्थ्य एवं आनंद केन्द्र विशेष प्रभावित अंग - प्रजनन अंग, मल-मूत्र अंग, गुर्दे, हृदय, श्वास, फेफड़ें, भुजाएं, रक्त संचरण तंत्र आदि।
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एक्युप्रेशर चिकित्सज्ञों के अनुसार तर्जनी अंगुली में मेरुदण्ड के विशेष बिन्दु हैं। उन बिन्दुओं पर दबाव पड़ने से मेरूदण्ड सम्बन्धी दोष दूर होते हैं और मेरूदण्ड पुष्ट होता है। अंगूठे के मूल में (जहाँ तर्जनी अंगुली का अग्रभाग स्थित है वहाँ ) गले के विशिष्ट अवयव हैं उन पर दबाव होने से शरीर संतुलित रहता है तथा कार्यशीलता जैसे गुण विकसित होते हैं।