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विशिष्ट अभ्यास साध्य यौगिक मुद्राओं की रहस्यपूर्ण विधियाँ ...117 3. पेशियों के संकोच एवं प्रसार को लयबद्ध ढंग से होने दें। 4. गुदा द्वार की पेशियों के साथ किसी तरह की जोर-जबर्दस्ती न करें। 5. उपलब्ध समय के अनुसार अधिकतम अभ्यास करने का प्रयत्न करें। 6. प्रारम्भ में केवल गुदा द्वार की पेशियों को ही संकुचित करने में काफी
कठिनता का अनुभव हो सकता है लेकिन नियमित अभ्यास से यह क्रिया
सरल होती जायेगी। 7. दोनों विधियों में से किसी भी एक विधि का प्रयोग करें। सुपरिणाम
• अश्विनी मुद्रा का प्रयोग शरीर एवं आत्मा उभयदृष्टि से अनुकरणीय है।
• इस अभ्यास में दक्ष व्यक्ति अपनी प्राण शक्ति के ह्रास को रोकने में समर्थ होता है फलत: शक्ति का सहस्रगुणित संचय करता है।
• यह अभ्यास कुंडलिनी शक्ति को जागृत करता है। जिस शक्ति का प्रवाह ऊपर की ओर होता है उससे अमूल्य उद्देश्यों की पूर्ति होती है।
• इस मुद्रा के द्वारा गुदा सम्बन्धी सर्व रोग दूर हो सकते हैं, शारीरिक बल में वृद्धि होती है तथा अकाल मृत्यु का निवारण होता है अर्थात अभ्यासी साधक दीर्घजीवी होता है।
• अनेक लोगों की गुदाद्वार पेशियाँ कमजोर होने से उन्हें कब्ज एवं बवासीर जैसी व्यापक व्याधियाँ घेरे रहती हैं। अश्विनी मुद्रा आँतों की क्रमाकुंचन गति को उत्तेजित कर कब्ज निवारण में काफी सहयोग करती है। उससे सामान्य स्वास्थ्य में भी सुधार आता है।
• गुदाद्वार के पास रक्त के जमाव को बवासीर का लक्षण माना जाता है। प्रस्तुत मुद्रा इस संग्रहीत रक्त को निचोड़ कर गुदाद्वार के पास से हटा देती है अत: बवासीर रोगी को इस मुद्रा का प्रतिदिन प्रयोग करना चाहिए।7
योग साधना का अभिन्न अंग मूलबंध है। मूलबंध को साधने के लिए गुदाद्वार तथा पेरिनियम क्षेत्र के प्रति पर्याप्त संवेदनशील होना जरूरी है। इस संवेदनशीलता के विकास हेतु अश्विनी मुद्रा का प्रयोग उत्तम कोटि का सिद्ध होता है।