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________________ 100... यौगिक मुद्राएँ : मानसिक शान्ति का एक सफल प्रयोग न हो अत: किसी अनुभवी सद्गुरु के उपदेशानुसार उन्हीं की देख-रेख में करनी चाहिए। 3. अश्विनी मुद्रा के अभ्यास के उपरान्त भी कुछ समय के लिए प्राण वायु एवं अपान वायु को भीतर रोके रखें। उसके बाद ही कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में प्रवृत्त होना चाहिए। 4. महर्षि घेरण्ड के अनुसार शक्तिचालिनी मुद्रा का अभ्यास करने के पश्चात ही योनि मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। उसके बिना योनि मुद्रा सिद्ध नहीं होती।55 5. प्रस्तुत मुद्रा का अभ्यास एकान्त, शान्त एवं स्थिर चित्तपूर्वक प्रात:काल एवं सन्ध्या काल में करना अधिक उपयुक्त है। इसकी सिद्धि के लिए नियमित 15 मिनट का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। सुपरिणाम वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में इसे प्रयत्न पूर्वक गोपनीय रखते हुए प्रतिदिन अभ्यास करने का निर्देश दिया गया है। इस कथन से यह मुद्रा महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती है। • इस क्रिया के अभ्यास काल में मुख्य रूप से कुण्डलिनी शक्ति को अनावृत्त एवं ऊर्ध्वाभिमुखी करने का प्रयत्न किया जाता है। यह आत्मा की मूल शक्ति है अत: इसे अध्यात्म श्रेणि की मुद्रा कह सकते हैं। जहाँ अध्यात्म शक्ति का विकास होता है वहाँ अन्य शक्तियाँ एवं सिद्धियाँ स्वत: सफलता के द्वार खटखटाने लगती हैं। • इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए अनुभवी पुरुषों ने कहा है कि अभ्यासी साधक को विग्रह सिद्धि सहित सर्व सिद्धियाँ प्राप्त होती है और सभी रोगों का नाश होता है।56 • इस मुद्रा के माध्यम से प्राण और अपान वायु को मिलाया जाता है। इन द्विवायु के संयुक्त होने से साधक ऊर्ध्वरेता बनता है। • हठयोग प्रदीपिका के अनुसार कुण्डलिनी शक्ति सर्पाकार है और कुंडली मारे हुये बैठी है। यह जब ऊपर की ओर चलती है तब आत्मज्ञान की प्राप्ति
SR No.006257
Book TitleYogik Mudrae Mansik Shanti Ka Safal Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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