________________
विशिष्ट अभ्यास साध्य यौगिक मुद्राओं की रहस्यपूर्ण विधियाँ ... 85
नीचे की ओर है। 35 जैन भूगोल के अनुसार भी ज्योतिष ग्रहों में चन्द्र का स्थान ऊपर और सूर्य का स्थान उससे नीचे माना गया है। परिणामस्वरूप सूर्य की प्रचंड अग्नि के कारण बिन्दू से झरता शीतल अमृत नष्ट हो जाता है। उस अमृत के नष्ट होने से यह जीव शीघ्रमेव जरा अवस्था को प्राप्त हो जाता है। उस अमृत तत्त्व को सूर्य से बचाने के लिए शरीर को विपरीत स्थिति में रखा जाता है तब सूर्य (नाभि ) ऊपर की ओर रहता है तथा चन्द्रमा (तालु- मुखभाग) नीचे की ओर हो जाता है। इस अभ्यास को ही विपरीतकरणी मुद्रा कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे निवृत्तिमार्ग (मूल स्रोत की ओर लौटना) कह सकते हैं क्योंकि इसमें सूर्य और चन्द्र का स्थान परिवर्तित होने से अवस्थागत परिवर्तन हो जाता है। सामान्यतया चन्द्रमा के अमृत का प्रवाह सूर्य की ओर होना प्रवृति मार्ग (सांसारिक सक्रियता का मार्ग) का द्योतक है। संसार के अधिकांश लोगों की यह अवस्था है परन्तु आध्यात्मिक जीवन में इस प्रक्रिया को उलट दिया जाता है। वस्तुतः इस मुद्रा का प्रयोजन प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग की ओर लौटना, स्थूल चेतना से सूक्ष्म चेतना की अनुभूति करना है ।
विधि
• संलग्न चित्र में दर्शायी गयी मुद्रा के अनुसार शरीर को उल्टी स्थिति में करें।
जमीन पर कम्बल बिछा लें।
• पीठ के बल लेट जायें। पैरों को सीधे तथा एक साथ रखें।
• हथेलियों को ऊपर की ओर रखते हुए हाथों को बगल में रखें। सम्पूर्ण शरीर को शिथिल कर दें।
दोनों पैरों को सीधे तथा एक साथ रखते हुए
• फिर गहरी श्वास लेते हुए ऊपर उठायें। पैरों को सिर के ऊपर से उठाते जायें।
• तत्पश्चात भुजाओं को जमीन की ओर दबाते हुए नितम्बों को धरती से ऊपर उठाते जायें और पैरों को सिर की तरफ और सरकायें।
• तदनन्तर भुजाओं को मोड़कर हाथों से नितम्बों को सहारा दें। धड़ को भुजाओं के सहारे से संभाले रहें ।
पैरों को इस तरह उठायें कि वे लम्बवत खड़े हो सकें। • नेत्रों को बन्द रखते हुए खेचरी मुद्रा का प्रयोग करें।