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भगवान बुद्ध की मुख्य 5 एवं सामान्य 40 मुद्राओं की......61
वाली 40 मुद्राओं में से यह सत्रहवीं मुद्रा है। इस मुद्रा में भगवान बुद्ध द्वारा अपने केश उपहार के रूप में प्रदान किये जाने का भाव सूचित किया गया है अत: इसे केश प्रदान मुद्रा कह सकते हैं।
यह मुद्रा वीरासन या वज्रासन में धारण की जाती है। विधि
दायें हाथ की अंगुलियाँ ऊपर उठी हुई एवं हल्की सी झुकी हुई रहें तथा हथेली मध्यभाग में बालों का स्पर्श करती हुई रहें। बायां हाथ ऊर्ध्वाभिमुख रूप से गोद में रखा हुआ रहे, इस तरह 'पेंग्-फ्रा-कैत्-ततु' मुद्रा बनती है।19 सुपरिणाम
• यह मुद्रा आकाश तत्त्व को संतुलित करती है। इससे हृदय सम्बन्धी बीमारियों में लाभ होता है तथा एकाग्रता, ध्यान सिद्धि और अनहद आनंद की अनुभूति होती है। • आज्ञा चक्र एवं ललाट चक्र को नियंत्रित करते हुए यह मुद्रा शान्त चित्ता, एकाग्रता, सौम्यता, स्वाभाविक मृदुता आदि गुणों का विकास करती है। • यह मुद्रा दर्शन एवं ज्योति केन्द्र को प्रभावित करती है इससे नेत्र ज्योति बढ़ती है, काम-वासनाओं एवं क्रोधादि कषायों पर नियंत्रण होता है। • पिच्युटरी एवं पिनियल ग्रंथि को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा दृढ़ मनोबल, निर्णायक शक्ति, स्मरण शक्ति एवं देखने-सुनने की शक्ति में विकास करती हैं तथा अन्य ग्रंथियों की त्रुटियों को भी ठीक करती है। 18. पेंग फ्रतब्रे खनन् मुद्रा (नाव द्वारा गमन करने की मुद्रा) ___ थायलैण्ड देश में उपरोक्त नाम से प्रसिद्ध इस मुद्रा को भारत में 'अभय कट्यावलम्बिता' मुद्रा कहते हैं। यह बुद्ध की जीवन घटना सम्बन्धी 40 मुद्राओं में से अठारहवीं मुद्रा है।
भगवान बुद्ध के द्वारा नाव से गमन करते समय जो स्थिति रहती थी वही इस मुद्रा में दर्शाने का प्रयास किया गया है। यह मुद्रा कुर्सी या सतह पर प्रलम्ब पदासन मुद्रा में धारण की जाती है। विधि
दायी हथेली को बाहर की तरफ करते हुए उसे छाती के स्तर पर रखें, अंगुलियों एवं अंगूठे को ऊपर की तरफ सीधा और हल्के से झुकाते हुए रखें।