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हिन्दू एवं बौद्ध परम्पराओं में प्रचलित मुद्राओं का स्वरूप......299 प्रथम प्रकार ___बायें हाथ को कंधे की सीध में आगे की ओर बढ़ाते हुए हथेली को ऊर्ध्वमुख करें। फिर अंगूठा, तर्जनी, मध्यमा और कनिष्ठिका को ऊपर दिशा में उठायें तथा अनामिका को हथेली तरफ मोड़ने पर प्रथम त्रिपिटक मुद्रा बनती है।
__ उक्त मुद्रा भगवान विष्णु एवं भगवान शिव के द्वारा विभिन्न अस्त्रों को धारण करते समय की जाती है।35 लाभ
चक्र- सहस्रार एवं स्वाधिष्ठान चक्र तत्त्व- आकाश एवं जल तत्त्व प्रन्थि- पिनियल एवं प्रजनन ग्रन्थि केन्द्र- ज्योति एवं स्वास्थ्य केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- ऊपरी मस्तिष्क, आँख, मल-मूत्र अंग, प्रजनन अंग, गुर्दे। द्वितीय प्रकार
इस मुद्रा का दूसरा नाम त्रिपताका मुद्रा है।
प्रस्तुत मुद्रा में तीन अंगुलियाँ सीधी रहती है जो तीन पिटकों का सूचन करती है। यह मुद्रा कटि सम नृत्य में परमश्व के द्वारा की जाती है।
त्रिपिटक मुद्रा-2