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164... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में
उक्त दोनों मुद्राएँ शक्ति प्रदायिनी मुद्राएँ हैं। इन मुद्राओं के अभ्यास से साधक के मुखमंडल पर विशेष आकर्षण पैदा होता है। नियमित अभ्यास से साधक के भीतर अज्ञात शक्तियों का प्रादुर्भाव होने लगता है तथा इनका त्रैकालिक अभ्यास करने पर दिव्य शक्तियाँ एवं आभ्यन्तर शक्तियाँ प्रत्यक्ष सिद्ध हो सकती हैं।
इन मुद्राओं के दीर्घ अभ्यास के परिणाम स्वरूप सम्मोहन शक्ति, मैस्मेरिक एवं हिप्नोटिक शक्तियों का विकास होता है। इन मुद्राओं का प्राण विनिमय विद्या के विकास में भी महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। इनका अभ्यास साधक में ओज, तेज और दिव्यता की अभिवृद्धि करता है।
सिंहक्रान्त मुद्रा के निरन्तर अभ्यास से सिंह की भाँति साहस और पराक्रम का जन्म होता है। महाक्रान्त मुद्रा के प्रयोग से मुखमंडल के चारों ओर सूक्ष्म रूप से सर्वदा एक दिव्य ओरा (तेज) विद्यमान रहने लगता है। इससे शरीरस्थ सूक्ष्म स्नायुगुच्छ, स्नायु मंडल तथा शक्ति पुंज यौगिक चक्रों में एक अद्भुत कम्पन का अहसास होता है। 23. मुद्गर मुद्रा
मुद्गर एक प्रकार का शस्त्र है जिसे पाप नाश एवं शत्रु दमन के लिए दुर्गा देवी धारण करती है। यहाँ संभवत: उसी रूप का स्मरण करते हुए यह मुद्रा निष्पन्न की जाती है।
यौगिक परम्परा में प्रचलित मुद्गर मुद्रा गायत्री जाप से पूर्व की जाती है। यह संयुक्त मुद्रा रोग उपशान्ति के लिए महत्त्वपूर्ण मानी गयी है। विधि
बायें हाथ को हृदय के अग्रभाग पर स्थिर करें, हथेली आकाश की ओर रहे, अंगुलियाँ सीधी फैली हुई रहें।।
दायें हाथ की कोहनी बायीं हथेली पर स्थिर रहें, हाथ ऊपर की ओर उठा हुआ, बायीं हथेली से 90° कोण की दूरी पर रहें तथा अंगुलियाँ मुट्ठी रूप में बंधी हुई हो, इस तरह मुद्गर मुद्रा बनती है।24