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गायत्री जाप साधना एवं सन्ध्या कर्मादि में उपयोगी मुद्राओं......159
स्पष्टत: दायीं हथेली बायीं हथेली के ऊपर रहे, दायीं तर्जनी का अग्रभाग बायें अंगूठे के अग्रभाग से स्पर्शित तथा दायें हाथ की कनिष्ठिका का अग्रभाग बायीं तर्जनी के अग्रभाग से स्पर्श करती हुई रहें। गायत्री जाप हेतु कूर्म मुद्रा उक्त विधि के अनुसार बनती है।20 लाभ
• यह मुद्रा अग्नि तत्त्व को संतुलित करती है। इससे जठर, तिल्ली, यकृत, स्वादुपिंड, एड्रीनल आदि में अग्निरस एवं पित्तरस उत्पन्न होता है। इससे पाचन तंत्र मजबूत, सक्रिय एवं संतुलित रहता है।
• मणिपुर एवं ललाट चक्र को प्रभावित करते हुए यह मुद्रा शरीर में रक्त और शर्करा की मात्रा, जल तत्त्व और सोडियम का नियंत्रण करती है। व्यक्ति को तनावों से मुक्तकर कार्यशक्ति एवं चरित्र विकास करती है।
• दर्शन केन्द्र एवं तैजस केन्द्र को जागृत करते हए कषाय नियंत्रण, वासना शमन एवं हृदय परिवर्तन में सहयोगी बनती है। इससे बाह्य एवं आभ्यंतर तेज का वर्धन होता है।
• एक्युप्रेशर विशेषज्ञों के अनुसार इस मुद्रा के प्रयोग से अनैतिक प्रवृत्तियों का उपशमन होता है। व्यक्ति निर्भीक, साहसी एवं संघर्षशील बनता है। इससे मनोबल, निर्णायक शक्ति, स्मरण शक्ति आदि का भी वर्धन होता है। 20. वराहक मुद्रा
संस्कृत शब्द वराह विविध अर्थों का बोधक है। विष्णु का तीसरा अवतार वराहावतार माना जाता है। यहाँ गायत्री शक्ति स्वरूप विष्णु भगवान को लक्षित कर इस मुद्रा का नाम वराहक मुद्रा रखा गया मालूम होता है। कुछ विद्वानों ने इसे विष्णुअवतार की सूचक मुद्रा कहा है।
यह संयुक्त मुद्रा गायत्री जाप से पूर्व की जाने वाली 24 मुद्राओं में से एक है। यह रोग निवारण में विशेष उपयोगी है। विधि
वराहक मुद्रा को बनाते वक्त दायीं हथेली शरीर के मध्य भाग में (हृदय के आगे) स्थिर रहें, अंगुलियाँ नीचे की तरफ हथेली की ओर मुड़ी हुई रहें तथा अंगूठा ऊपर उठा हुआ रहें।