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156... हिन्दू मुद्राओं की उपयोगिता चिकित्सा एवं साधना के संदर्भ में विधि
सर्वप्रथम दोनों हाथों को मुट्ठी रूप में बांधे। फिर अंगूठों को तर्जनी के बाह्य भाग पर स्थिर रखें तथा सभी अंगुलियों के दूसरे पोरों को एक दूसरे से स्पर्शित करते हुए रखने पर जो मुद्रा बनती है उसे मुष्टिक मुद्रा कहा जाता है।18 लाभ
• मुष्टिक मुद्रा आकाश तत्त्व को संतुलित करते हुए हृदय सम्बन्धी विकारों का शमन करती हैं।
• इसके द्वारा विशुद्धि चक्र जागृत होता है और यह जीव की ज्ञान ग्रन्थियों को जागृत करते हुए मन को शान्त रखता है तथा शोकहीन एवं दीर्घजीवी बनाता है।
• यह मुद्रा पूर्व संचित ज्ञान का स्मरण करवाती है। इससे गले में सूजन, सिरदर्द (Eczema), चर्म रोग आदि के उपचार में सहयोग प्राप्त होता है, ऐसा एक्युप्रेशर विशेषज्ञों का मानना है। 18. मत्स्य मुद्रा
मत्स्य संस्कृत का मूल रूप है इसे मछली कहते हैं। यह मुद्रा मत्स्याकार के समान निर्मित की जाती है अत: इसे मत्स्य मुद्रा कहा गया है।
यह विष्णु के मत्स्यावतार की सूचक मुद्रा है। मत्स्य हमेशा जल प्रवाह को विपरीत गति देता है वैसे ही यह मुद्रा संसार में परिभ्रमण कर रहे प्राणियों को उसके विपरीत आध्यात्मिक जगत की ओर गति करने का संकेत करती है।
यौगिक परम्परा से संबंधित यह तांत्रिक मुद्रा बौद्ध और हिन्दु दोनों परम्पराओं में धर्मगुरुओं और श्रद्धालुओं द्वारा ग्रहण की जाती है। यह संयुक्त मुद्रा नाटकों में भी प्रयुक्त होती है। विधि - इस मुद्रा में दायीं हथेली नीचे की तरफ अर्थात हथेली का सीधा भाग भूमि तरफ, अंगुलियाँ सीधी फैली हुई और अंगूठा 90° कोण की दूरी पर रहे। बायीं हथेली भी भूमि की ओर, अंगुलियाँ एक साथ बाहर आती एवं फैली हुई और अंगूठा 90° कोण पर स्थिर रहें। इस प्रकार दाहिने हाथ को बाएं हाथ के ऊपर स्पर्शित करते हुए रखने पर मत्स्य मुद्रा बनती है।
यह मुद्रा कमर के स्तर पर धारण की जाती है।19