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गायत्री जाप साधना एवं सन्ध्या कर्मादि में उपयोगी मुद्राओं... ... 139
फिर अंगुलियों को भूमि से समानान्तर सामने की ओर फैलाते हुए रखें। फिर अनामिका एवं कनिष्ठिका अंगुलियों के अग्रभाग को परस्पर मिलायें तथा अंगूठों को ऊपर की ओर करने पर द्विमुख मुद्रा बनती है।
लाभ
चक्र- स्वाधिष्ठान, एवं मूलाधार चक्र तत्त्व - जल एवं पृथ्वी तत्त्व केन्द्र- स्वास्थ्य एवं शक्ति केन्द्र ग्रन्थि - प्रजनन ग्रन्थि विशेष प्रभावित अंगमल-मूत्र अंग, गुर्दे, प्रजनन अंग, मेरूदण्ड एवं पाँव।
6. त्रिमुखम् मुद्रा
त्रिमुख का शाब्दिक अर्थ है तीन मुख वाला ।
बुद्ध
हिन्दी कोश में शाक्य मुनि को त्रिमुख वाला कहा गया है, की माता को त्रिमुखी बतलाया है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश को त्रिदेव कहा जाता है। अनुमानतः यह मुद्रा तीन मुख को धारण करने वाले त्रिदेव की उपासना एवं उन्हें संतुष्ट करने के उद्देश्य से की जाती है।
त्रिमुखम् मुद्रा