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शारदातिलक, प्रपंचसार आदि पूर्ववर्ती ग्रन्थों में उल्लिखित
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विधि
हस्तौ तु संपुटौ कृत्वा, प्रसृतांगुलिकौ तथा । तर्जन्यौ मध्यमापृष्ठे, अंगुष्ठौ मध्यमान्वितौ ।। काममुद्रेयमाख्याता, सर्वसत्त्वप्रियंकरी ।। दोनों हाथों को सम्पुट आकार में करके अंगुलियों को सीधा फैलाएँ, फिर दोनों तर्जनियों को अपनी-अपनी मध्यमाओं के पृष्ठ भाग पर रखें, तथा दोनों अंगूठों को अपनी-अपनी मध्यमाओं पर रखना काम मुद्रा है 166
लाभ
चक्र- अनाहत एवं स्वाधिष्ठान चक्र तत्त्व - वायु एवं जल तत्त्व ग्रन्थिथायमस एवं प्रजनन ग्रन्थि केन्द्र - आनंद एवं स्वास्थ्य केन्द्र विशेष प्रभावित अंग- हृदय, फेफड़े, भुजाएँ, रक्तसंचरण प्रणाली, मल-मूत्र अंग, प्रजनन अंग, गुर्दे।
36. त्रैलोक्यमोहिनी मुद्रा
स्वर्ग, मुत्यु और पाताल इन तीनों लोकों को मोहित करने वाली मुद्रा त्रैलोक्यमोहिनी मुद्रा कही जाती है। विष्णु के एक अवतार का नाम मोहिनी है जिसे उन्होंने समुद्र मंथन के समय धारण किया था। उसका स्वरूप इतना सुंदर था कि समस्त देव-दानव उन पर मोहित हो गये थे। यह मुद्रा विष्णु के उस स्वरूप के सूचनार्थ की जाती है।
विधि
मूर्धन्यङ्गुष्ठमुष्टी द्वे, मुद्रा त्रैलोक्यमोहिनी ।
दोनों हाथों को मुट्ठी रूप में बांधकर उन्हें परस्पर में जोड़े। फिर दोनों मुट्ठियों को मस्तक के ऊपर रखना त्रैलोक्यमोहिनी मुद्रा है 167
37. परशु मुद्रा
परशु एक अस्त्र का नाम है। इस मुद्रा के द्वारा परशु नामक अस्त्र को दर्शाया जाता है।
यह मुद्रा मंगल कार्यों में विघ्न संतोषी देवी - देवताओं के निवारणार्थ की जाती है।