SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्राओं का सोद्देश्य स्वरूप......35 हैं। परिणामत: शरीर निरोगी बनता है। इस मुद्रा में अग्नि तत्त्व (अंगूठा) और जल तत्त्व (मध्यमा अंगुली) विशेष प्रभावित होते हैं। इससे हृदय शक्तिशाली बनता है, नाड़ियों की शुद्धि होती है तथा पाचन, मल-मूत्र एवं प्रजनन सम्बन्धी विकारों का शमन होता है। इससे शारीरिक समस्याएँ जैसे स्त्रियों का योनि में विकार, सूजन, खून की कमी, अल्सर, बुखार, बदबूदार श्वास आदि में भी फायदा होता है। यह मुद्रा एड्रीनल, पैन्क्रियाज एवं गोनाड्स ग्रंथियों का संतुलन करते हुए ब्लड शुगर, रक्तचाप, सिरदर्द, कमजोरी, कामेच्छा, ज्ञानेन्द्रिय सम्बन्धी रोगों का शमन करती है। इससे उदर सम्बन्धी अवयवों की क्षमता बढ़ती है और जठराग्नि प्रबल होती है। इस मुद्राभ्यास से स्वाधिष्ठान एवं मणिपुर चक्र सक्रिय बनते हैं जिनके प्रभाव से अस्थिरता, कामुकता, शंकालु प्रवृत्ति, लोभ, अकेलापन, भय, लालसा, आत्मविश्वास की कमी आदि पर नियंत्रण होता है। • भावनात्मक स्तर पर मानसिक विकार नष्ट होते हैं, वैचारिक निर्मलता का उद्भव होता है और बुद्धि कुशाग्र बनती है। • आध्यात्मिक स्तर पर जड़-चेतन का भेदज्ञान होता है तथा चेतना गूढार्थक तथ्यों को जानने में सक्षम बनती है। विशेष • इस मुद्रा का प्रयोग स्थान आदि के शुद्धिकरण हेतु किया जाता है। • एक्यूप्रेशर थेरेपी के अनुसार इस मुद्रा से मस्तिष्क एवं साइनस सम्बन्धी रोगों का निवारण होता है। ___ • बेहोशी, दौरे पड़ना, सदमा लगना आदि में यह मुद्रा शीघ्र लाभ पहुँचाती है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy