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________________ मुद्रा प्रकरण एवं मुद्राविधि में वर्णित मुद्राओं की प्रयोग विधियाँ ...299 दोनों कनिष्ठिकाओं के मूल भाग में अंगूठों के अग्रभागों को संयुक्त करते हुए उठे हुए दोनों हाथों से आवाहन करना प्रवहण मुद्रा है। सुपरिणाम • मुद्रा विशेषज्ञों के अनुसार प्रवहण मुद्रा धारण करने से स्वाधिष्ठान चक्र जागृत एवं सक्रिय होता है। इससे प्रतिकूल परिस्थिति एवं तनाव से लड़ने की क्षमता उत्पन्न होती है। • यह मुद्रा खून की कमी, सूखी त्वचा, हर्निया, दाद, खुजली, अंडाशय, गर्भाशय आदि की समस्या, योनि विकार आदि शारीरिक रोगों में लाभ पहुँचाती है। • शरीरस्थ जल तत्व को संतुलित करते हुए यह मुद्रा उत्सर्जन एवं विसर्जन कार्यों में विशेष सहायक बनती है। • प्रजनन ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा कामेच्छाओं का नियंत्रण करती है तथा बालों के झड़ने एवं तापमान के असंतुलन आदि में भी लाभ पहुँचाती है। 59. स्थापन मुद्रा इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा में निर्दिष्ट मुद्रा नं. 16 के समान है। यह मुद्रा नन्दि स्थापना और संघपति प्रमुख की स्थापना के समय प्रयुक्त होती है। इसका बीज मन्त्र 'इ' है। 60. अवगुण्ठन मुद्रा इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा निर्दिष्ट मुद्रा नं. 18 के समान है। . किन्हीं के मतानुसार इस मुद्रा का प्रयोग स्वयं के अंगों की रक्षा के लिए और मार्ग में साथ गमन करने वाले जन समुदाय की रक्षा के लिए किया जाता है। इसका बीज मंत्र 'ई' है। 61. निरोध मुद्रा इस मुद्रा का स्वरूप विधिमार्गप्रपा में उल्लिखित मुद्रा नं. 17 के समान है।
SR No.006254
Book TitleJain Mudra Yog Ki Vaigyanik Evam Adhunik Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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