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294... जैन मुद्रा योग की वैज्ञानिक एवं आधुनिक समीक्षा अंगूठों के द्वारा ढकते हुए एवं मध्य में किंचिद अन्तराल (रिक्तता) रखने पर घृतकुंभ मुद्रा बनती है। सुपरिणाम
• घृतभृत कुंभ मुद्रा का प्रयोग स्वाधिष्ठान, मणिपुर एवं अनाहत चक्र को प्रभावित करता है। यह मुद्रा प्रतिकूलता एवं तनाव से लड़ने की क्षमता उत्पन्न करती है। आत्मविश्वास, संकल्पबल एवं पराक्रम बढ़ाता है।
• शारीरिक दृष्टिकोण से यह मुद्रा एलर्जी, दमा, खून की कमी, बदबूदार श्वास, मधुमेह, पाचन समस्या, छाती, श्वास, हृदय, फेफड़ा आदि के विकार में फायदा करती है।
• इस मुद्रा का प्रयोग जल, अग्नि एवं वायु तत्त्व को संतुलित करते हुए प्रजनन, पाचन एवं रक्त संचरण के कार्यों को नियमित करता है। यह मुद्रा शरीरस्थ अग्नि को जागृत कर ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन में भी सहायता करती है।
• थायमस, एड्रीनल, पैन्क्रियाज एवं प्रजनन ग्रंथि के स्राव को संतुलित करते हुए यह मुद्रा बालकों में सुसंस्कारों एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करती है तथा रक्तशर्करा, ब्लडप्रेशर, कामेच्छा आदि पर नियंत्रण रखने में सहायक बनती है। 49. क्षुर मुद्रा
एक प्रकार का शस्त्र विशेष क्षुर कहलाता है। इस मुद्रा में तीन अंगुलियाँ ऊर्ध्व प्रसरित रहती हैं जो नेत्रत्रय और रत्नत्रय की प्रतीक हैं। इसीलिए क्षुर मुद्रा के द्वारा नेत्रत्रय का न्यास किया जाता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना करते समय भी यह मुद्रा दिखायी जाती है। इस मुद्रा के द्वारा शाकिनी, भूत, प्रेत आदि का निग्रह भी किया जाता है।
इसका बीज मन्त्र 'श' है। विधि
"कनिष्ठिकामंगुष्ठेन संपीड्य शेषांगुलीः प्रसारयेदिति क्षुर मुद्रा।"
कनिष्ठिका को अंगूठे से संस्पर्शित करते हुए शेष अंगुलियों को प्रसारित करने पर क्षुर मुद्रा बनती है।